श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । व्याख्या- ‘ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः’- जब जगह एक सच्चिदानंघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खांड़ से बने हुए अनेक तरह के खिलौनों के नाम, रूप, आकृति आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें समानरूप से एक खाँड़ को, लोहे से बने हुए अनेक तरह के अस्त्र-शस्त्रों में एक लोहे को, मिट्टी से बने हुए अनेक तरह के बर्तनों में एक मिट्टी को और सोने से बने हुए आभूषणों में एक सोने को ही देखता है, ऐसे ही ध्यानयोगी तरह-तरह की वस्तु, व्यक्ति आदि में समरूप से एक अपने स्वरूप को ही देखता है। ‘योगयुक्तात्मा’- इसका तात्पर्य है कि ध्यानयोग का अभ्यास करते-करते उस योगी का अंतःकरण अपने स्वरूप में तल्लीन हो गया है। [तल्लीन होने के बाद उसका अतःकरण से संबंध विच्छेद हो जाता है, जिसका संकेत ‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ पदों से किया है।] ‘सर्वभूतस्थमात्मानम्’- वह संपूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को- अपने सत्स्वरूप को स्थित देखता है। जैसे साधारण प्राणी सारे शरीर में अपने आपको देखता है अर्थात शरीर के सभी अवयवों में, अंशों में ‘मैं’ को ही पूर्णरूप से देखता है, ऐसे ही समदर्शी पुरुष सब प्राणियों में अपने स्वरूप को ही स्थित देखता है। किसी को नींद में स्वप्न आए, तो वह स्वप्न में स्थावर जंगम प्राणी पदार्थ देखता है पर नींद खुलने पर वह स्वप्न की सृष्टि नहीं दिखती; अतः स्वप्न में स्थावर जंगम आदि सब कुछ स्वयं ही बना है। जाग्रत- अवस्था में किसी जड़ या चेतन प्राणी पदार्थ की याद आती है, तो वह मन से दिखने लग जाता है और याद हटते ही वह सब दृश्य अदृश्य हो जाता है; अतः याद में सब कुछ अपना मन ही बना है। ऐसे ही ध्यानयोगी संपूर्ण प्राणियों में अपने स्वरूप को स्थित देखता है। स्थित देखने का तात्पर्य है कि संपूर्ण प्राणियों में सत्तारूप से अपना ही स्वरूप है। स्वरूप के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं है; क्योंकि संसार एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता ही रहता है। संसार के किसी रूप को एक बार देखने पर अगर दुबारा उसको कोई देखना चाहे, तो देख ही नहीं सकता; क्योंकि वह पहला रूप बदल गया। ऐसे परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति आदि में योगी सत्तारूप से अपरिवर्तनशील अपने स्वरूप को ही देखता है। ‘सर्वभूतानि चात्मनि’- वह संपूर्ण प्राणियों को अपने अंतर्गत देखता है अर्थात अपने सर्वगत, असीम, सच्चिदानंदघन स्वरूप में ही सभी प्राणियों को तथा सारे संसार को देखता है। जैसे एक प्रकाश के अंतर्गत लाल, पीला, काला, नीला आदि जितने रंग दिखते हैं, वे सभी प्रकाश से ही बने हुए हैं और प्रकाश में ही दिखते हैं और जैसे जितनी वस्तुएँ दिखती हैं, वे सभी सूर्य से ही उत्पन्न हुई हैं और सूर्य के प्रकाश में ही दिखती हैं, ऐसे ही वह योगी संपूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप से ही पैदा हुए, स्वरूप में लीन होते हुए और स्वरूप में ही स्थित देखता है। तात्पर्य है कि उसको जो कुछ दिखता है, वह सब अपना स्वरूप ही दिखता है। इस श्लोक में प्राणियों में तो अपने को स्थित बताया है, पर अपने में प्राणियों को स्थित नहीं बताया। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि प्राणियों में तो अपनी सत्ता है, पर अपने में प्राणियों की सत्ता नहीं है। कारण कि स्वरूप तो सदा एकरूप रहने वाला है, पर प्राणी उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। इस श्लोक का तात्पर्य यह हुआ है कि व्यवहार में तो प्राणियों के साथ अलग-अलग बर्ताव होता है, परंतु अलग-अलग बर्ताव होने पर भी उस समदर्शी योगी की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। संबंध- भगवान ने चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकों में सगुण-साकार का ध्यान करने वाले जिस भक्तियोगी का वर्णन किया था, उसके अनुभव की बात आगे के श्लोक में कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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