श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः । अर्थ- जो मूढ़ मनुष्य मेरे को अज और अविनाशी ठीक तरह से नहीं जानते (मानते), उन सबके सामने योगमाया से अच्छी तरह से आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता। व्याख्या- ‘मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्’- मैं अज और अविनाशी हूँ अर्थात जन्म-मरण से रहित हूँ। ऐसा होने पर भी मैं प्रकट और अंतर्धान होने की लीला करता हूँ अर्थात जब मैं अवतार लेता हूँ, तब अज (अजन्मा) रहता हुआ ही अवतार लेता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अवतार लेता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अंतर्धान हो जाता हूँ। जैसे सूर्य भगवान उदय होते हैं तो हमारे सामने आ जाते हैं और अस्त होते हैं तो हमारे नेत्रों से ओझल हो जाते हैं, छिप जाते हैं, ऐसे ही मैं केवल प्रकट और अंतर्धान होने की लीला करता हूँ। जो मेरे को इस प्रकार जन्म-मरण से रहित मानते हैं, वे तो असम्मूढ़ है।[1] परंतु जो मेरे को साधारण प्राणियों की तरह जन्मने-मरने वाला मानते हैं, वे मूढ़ हैं।[2] भगवान को अज, अविनाशी न मानने में कारण है कि इस मनुष्य का भगवान के साथ जो स्वतः अपनापन है, उसको भूलकर इसने शरीर को अपना मान लिया कि ‘यह शरीर ही मैं हूँ और यह शरीर मेरा है।’ इसलिए उसके सामने परदा आ गया, जिससे वह भगवान को भी अपने समान ही जन्मने मरने वाला मानने लगा। मूढ़ मनुष्य मेरे को अज और अविनाशी नहीं जानते। उनके न जानने में दो कारण हैं- एक तो मेरा योगमाया से छिपा रहना और एक उनकी मूढ़ता। जैसे, किसी शहर में किसी का एक घर है और वह अपने घर में बंद है तथा शहर के सब-के-सब घर शहर की चहारदीवारी (परकोटे) में बंद है। अगर वह मनुष्य बाहर निकलना चाहे तो अपने घर से निकल सकता है, पर शहर की चहारदीवारी से निकलना उसके हाथ की बात नहीं है। हाँ, यदि उस शहर का राजा चाहे तो वह चहारदीवारी का दरवाजा भी खोल सकता है और उसके घर का दरवाजा भी खोल सकता है। अगर वह मनुष्य अपने घर का दरवाजा नहीं खोल सकता तो राजा उस दरवाजे को तोड़ भी सकता है। ऐसे ही यह प्राणी अपनी मूढ़ता को दूर करके अपने नित्य स्वरूप को जान सकता है। परंतु सर्वथा भगवत्तत्त्व का बोध तो भगवान की कृपा से ही हो सकता है- ‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’।[3] अगर मनुष्य सर्वथा भगवान के शरण हो जाए तो भगवान उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी दूर कर देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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