श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
मेरा भजन करने वाले मेरे को ही प्राप्त होते हैं- इसी भाव को लेकर भगवान अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- इन चारों प्रकार के भक्तों को सुकृती और उदार कहा है।[3] यहाँ ‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ का तात्पर्य है कि जीव कैसे ही आचरणों वाला क्यों न हो अर्थात वह दुराचारी से दुराचारी क्यों न हो, आखिर है तो मेरा ही अंश। उसने केवल आसक्ति और आग्रहपूर्वक संसार के साथ संबंध जोड़ लिया है। अगर संसार की आसक्ति और आग्रह न हो तो उसे मेरी प्राप्ति हो ही जाएगी। सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान का विधान भी भगवत्स्वरूप है- ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना- ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाए तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाएगा और यदि संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाए तो कामना मिट जाएगी। फिर मात्र क्रियाओं के द्वारा भगवान की सेवा होने लग जाएगी। अगर संसार का भगवत्स्वरूप दिखना और कामना का नाश होना- दोनों एक साथ हो जाएं, तो फिर कहना ही क्या है। संबंध- यद्यपि देवताओं की उपासना का फल सीमित और अंत वाला होता है, फिर भी मनुष्य उसमें क्यों उलझ जाते हैं, भगवान में क्यों नहीं लगते, इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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