श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
जगत-मात्र की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की जो क्रिया होती है, वह सब प्रकृति से ही होती है, प्रकृति में ही होती है और प्रकृति की ही होती है। परंतु उस प्रकृति को परमात्मा से ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। परमात्मा से सत्ता-स्फूर्ति मिलने पर भी परमात्मा में कर्तृत्व नहीं आता। जैसे सूर्य के प्रकाश में सभी प्राणी सब कर्म करते हैं और उनके कर्मों में विहित तथा निषिद्ध सब तरह की क्रियाएँ होती हैं। उन कर्मों के अनुसार ही प्राणी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का अनुभव करते हैं अर्थात कोई सुखी है तो कोई दुःखी है; कोई ऊँचा है तो कोई नीचा है, कोई किसी लोक में है तो कोई किसी लोक में है, कोई किसी वर्ण-आश्रम में है तो कोई किसी वर्ण-आश्रम में है आदि तरह-तरह का परिवर्तन होता है। परंतु सूर्य और उसका प्रकाश ज्यों-का-त्यों ही रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई अंतर नहीं आता। ऐसे ही संसार में विविध प्रकार का परिवर्तन हो रहा है पर परमात्मा और उनका अंश जीवात्मा ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं। वास्तव में अपने स्वरूप में किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन न है, न हुआ, न होगा और न हो ही सकता है। केवल परिवर्तनशील संसार के साथ अपना संबंध मानने से अर्थात तादात्म्य, ममता और कामना करने से ही संसार का परिवर्तन अपने में होता हुआ प्रतीत होता है। अगर प्राणी जिन भगवान की अध्यक्षता में सब परिवर्तन होता है, उनके साथ अपनी वास्तविक एकांत मान ले[1], तो भगवान के साथ इसका जो वास्तविक प्रेम है, वह स्वतः प्रकट हो जाएगा। संबंध- जो नित्य-निरंतर अपने-आप में ही स्थित रहते हैं, जिसके आश्रय से प्रकृति घूम रही है और संसार मात्र का परिवर्तन हो रहा है, ऐसे परमात्मा की तरफ दृष्टि न डालकर जो उलटे चलते हैं, उनका वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो कि स्वतः सिद्ध है
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