श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
व्रज की एक बात है। एक संत कुएँ पर किसी से बात कर रहे थे कि ब्रह्म है, परमात्मा है, जीवात्मा है आदि। वहाँ एक गोपी जल भरने आयी। उसने कान लगाया कि बाबा जी क्या बात कर रहे हैं। जब वह गोपी दूसरी गोपी से मिली तो उससे पूछा- ‘अरी सखी! यह ब्रह्म क्या होता है?’ उसने कहा- ‘हमारे लाला का ही कोई अड़ोसी-पड़ोसी, सगा संबंधी होगा! हम लोग तो जानती नहीं सखी! ये लोग उसी की धुन में लगे हैं न? इसलिए सब जानते हैं। हमारे तो एक नन्द के लाला ही हैं। कोई काम हो तो नन्दबाबा से कह देंगी, गिरिराज से कह देंगी कि महाराज! आप कृपा करो। कन्हैया तो भोला-भाला है, वह क्या समझेगा और क्या करेगा? कन्हैया से क्या मिलेगा? अरी सखी! वह कन्हैया हमारा है, और क्या मिलेगा?’ हम भी अकेली हैं और वह कन्हैया भी अकेला है। हमारे पास भी कुछ सामान नहीं, और उसके पास भी कुछ सामान नहीं, बिलकुल नंग-धड़ंग बाबा- ‘नगन मूरति-बाल गुपाल की, कतरनी बरनी जग-जालकी।’ अब ऐसे कन्हैया से क्या मिलेगा? |
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