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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
कौरव पाण्डव जब बालक थे, तब वे अस्त्र-शस्त्र सीख रहे थे। सीखकर जब तैयार हो गए, तब उनकी परीक्षा ली गयी, एक वृक्ष पर एक बनावटी चिड़िया बैठा दी गयी और सबसे कहा गया कि उस चिड़िया के कण्ठ पर तीर मारकर दिखाओ। एक-एक करके सभी आने लगे। गुरु जी पहले सबसे अलग-अलग पूछते कि बताओ, तुम्हें वहाँ क्या दीख रहा है? कोई कहता कि हमें तो वृक्ष दीखता है, कोई कहता कि हमें तो टहनी दीखती है, कोई कहता कि हमें तो चिड़िया दीखती है, चोंच भी दीखती है, पंख भी दीखते हैं। ऐसा कहने वालों को वहाँ से हटा दिया गया। जब अर्जुन की बारी आयी, तब उनसे पूछा गया कि तुमको क्या दीखता है, तो अर्जुन ने कहा कि मेरे को तो केवल कण्ठ ही दीखता है और कुछ भी नहीं दीखता। तब अर्जुन से बाण मारने के लिए कहा गया। अर्जुन ने अपने बाण से उस चिड़िया का कण्ठ वेध दिया; क्योंकि उनकी लक्ष्य पर दृष्टि ठीक थी। अगर चिड़िया दीखती है, वृक्ष, टहनी आदि दीखते हैं तो लक्ष्य कहाँ सधा है? अभी तो दृष्टि फैली हुई है। लक्ष्य होने पर तो वही दीखेगा, जो लक्ष्य होगा। लक्ष्य के सिवाय दूसरा कुछ दीखेगा ही नहीं। इसी प्रकार जब तक मनुष्य का लक्ष्य एक नहीं हुआ है, तब तक वह अनन्य कैसे हुआ? अव्यभिचारी ‘अनन्ययोग’ होना चाहिए- ‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’।[1] ‘अन्ययोग’ नहीं होना चाहिए अर्थात शरीर, मन, बुद्धि, अहम आदि की सहायता नहीं होनी चाहिए। वहाँ तो केवल एक भगवान ही होने चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज से किसी ने कहा- ‘आप जिन रामलला की भक्ति करते हैं, वे तो बारह कला के अवतार हैं, पर सूरदास जी जिन भगवान कृष्ण की भक्ति करते हैं, वे सोलह कला के अवतार हैं।’ |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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