श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
निरपेक्षं मुनिं शांतं निर्वैरं समदर्शनम्। ‘जो निरपेक्ष (किसी की अपेक्षा न रखने वाला), निरंतर मेरा मनन करने वाला, शांत, द्वेष-रहित और सबके प्रति समान दृष्टि रखने वाला है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण-रज मेरे ऊपर पड़ जाए और मैं पवित्र हो जाऊँ।’ किसी वस्तु की इच्छा को लेकर भगवान की भक्ति करने वाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तु का ही भक्त होता है; क्योंकि (वस्तु की ओर लक्ष्य रहने से) वह वस्तु के लिए ही भगवान की भक्ति करता है, न कि भगवान के लिए। परंतु भगवान की यह उदारता है कि उसको भी अपना भक्त मानते हैं;[2] क्योंकि वह इच्छित वस्तु के लिए किसी दूसरे पर भरोसा न रखकर अर्थात केवल भगवान पर भरोसा रखकर ही भजन करता है। इतना ही नहीं, भगवान भक्त ध्रुव की तरह उस (अर्थार्थी भक्त) की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निःस्पृह भी बना देते हैं। ‘शुचिः’- शरीर में अहंता-ममता (मैं-मेरापन) न रहने से भक्त का शरीर अत्यंत पवित्र होता है। अंतःकरण में राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोधादि विकारों के न रहने से उसका अंतःकरण भी अत्यंत पवित्र होता है। ऐसे (बाहर-भीतर से अत्यंत पवित्र) भक्त के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से दूसरे लोग भी पवित्र हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगों को पवित्र करते हैं; किंतु ऐसे भक्त तीर्थों को भी तीर्थत्व प्रदान करते हैं अर्थात तीर्थ भी उनके चरण-सर्श से पवित्र हो जाते हैं (पर भक्तों के मन में ऐसा अहंकार नहीं होता)। ऐसे भक्त अपने हृदय में विराजित ‘पवित्राणां पवित्रम्’ (पवत्रों को भी पवित्र करने वाले) भगवान के प्रभाव से तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं- महाराज भगीरथ गंगा जी से कहते हैं- हरन्त्यधं तेऽगंसंगात् तेष्वास्ते ह्यधभिद्धरिः ।। ‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक की समस्त कामनाओं का त्याग कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आपमें शांत हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी साधु पुरुष हैं, वे अपने अंगस्पर्श से तुम्हारे (पापियों के अंग-स्पर्श से आये) समस्त पापों को नष्ट कर देंगे; क्योंकि उनके हृदय में समस्त पापों का नाश करने वाले भगवान सर्वदा निवास करते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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