श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यतः । अर्थ- जो आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरंभों का अर्थात नये-नये कर्मों के आरंभ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। व्याख्या- ‘अनपेक्षः’- भक्त भगवान को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टि में भगवत्प्राप्ति से बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसार की किसी भी वस्तु में उसका किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव नहीं होता। इतना ही नहीं, अपने कहलाने वाले शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि में भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान का ही मानता है, जो कि वास्तव में भगवान के ही हैं। अतः उसको शरीर-निर्वाह की भी चिन्ता नहीं होती। फिर वह और किस बात की अपेक्षा करे? अर्थात फिर उसे किसी भी वस्तु की इच्छा-वासना-स्पृहा नहीं रहती। भक्त पर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाए, आपत्ति का ज्ञान होने पर भी उसके चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर-से-भयंकर परिस्थिति में भी वह भगवान की लीला का अनुभव करके मस्त रहता है। इसलिए वह किसी प्रकार की अनुकूलता की कामना नहीं करता। नाशवान पदार्थ तो रहते नहीं, उनका वियोग अवश्यम्भावी है और अविनाशी परमात्मा से कभी वियोग होता ही नहीं- इस वास्तविकता को जानने के कारण भक्त में स्वाभाविक ही नाशवान पदार्थों की इच्छा पैदा नहीं होती। यह बात खास ध्यान देने की है कि केवल इच्छा करने से शरीर-निर्वाह के पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करने से न मिलते हों- ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तव में शरीर-निर्वाह की आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है; क्योंकि जीवमात्र के शरीर-निर्वाह की आवश्यक सामग्री का प्रबंध भगवान की ओर से पहले ही हुआ रहता है। इच्छा करने से तो आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति में बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तु को अपने लिए अत्यंत आवश्यक समझकर ‘वह वस्तु कैसे मिले? कहाँ मिले? कब मिले?’- ऐसी प्रबल इच्छा को अपने अंतःकरण में पकड़े रहता है, तो उसकी उस इच्छा का विस्तार नहीं हो पाता अर्थात उसकी वह इच्छा दूसरे लोगों के अंतःकरण तक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगों के अंतःकरण में उस आवश्यक वस्तु को देने की इच्छा या प्रेरमा नहीं होती। प्रायः देखा जाता है कि लेने की प्रबल इच्छा रखने वाले (चोर आदि) को कोई देना नहीं चाहता। इसके विपरीत किसी वस्तु की इच्छा न रखने वाले विरक्त त्यागी और बालक की आवश्यकताओं का अनुभव अपने-आप दूसरों को होता है, और दूसरे उनके शरीर-निर्वाह का अपने-आप प्रसन्नतापूर्वक प्रबंध करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि इच्छा न करने से जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुएं बिना मांगे स्वतः मिलती है। अतः वस्तुओं की इच्छा करना केवल मूर्खता और अकारण दुःख पाना ही है। सिद्ध भक्त को तो अपने कहे जाने वाले शरीर की भी अपेक्षा नहीं होती; इसलिए वह सर्वथा निरपेक्ष होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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