श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ।।[1] ‘विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लें।’ सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तव में दक्षता नहीं है। एक दृष्टि से तो व्यवहार में अधिक दक्षता होना कलंक ही है; क्योंकि इससे अंतःकरण में जड़ पदार्थों का आदर बढ़ता है, जो मनुष्य के पतन का कारण होता है। सिद्ध भक्त में व्यावहारिक (सांसारिक) दक्षता भी होती है। परंतु व्यावहारिक दक्षता को पारमार्थिक स्थिति की कसौटी मानना वस्तुतः सिद्ध भक्त का अपमान ही करना है। ‘उदासीनः’- उदासीन शब्द का अर्थ है- उत्+आसीन अर्थात ऊपर बैठा हुआ, तटस्थ, पक्षपात से रहित। विवाद करने वाले दो व्यक्तियों के प्रति जिसका सर्वथा तटस्थ भाव रहता है, उसको उदासीन कहा जाता है। उदासीन शब्द निर्लिप्तता द्योतक है। जैसे ऊँचे पर्वत पर खड़े हुए पुरुष पर नीचे पृथ्वी पर लगी हुई आग या बाढ़ आदि का कोई असर नहीं पड़ता, ऐसे ही किसी भी अवस्था, घटना, परिस्थिति आदि का भक्त पर कोई असर नहीं पड़ता, वह सदा निर्लिप्त रहता है। जो मनुष्य भक्त का हित चाहता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है, वह उसका मित्र समझा जाता है और जो मनुष्य भक्त का अहित चाहता है तथा उसके प्रतिकूल आचरण करता है, वह उसका शत्रु समझा जाता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जाने वाले व्यक्ति के साथ भक्त के बाहरी व्यवहार में फर्क मालूम दे सकता है; परंतु भक्त के अंतःकरण में दोनों मनुष्यों के प्रति किञ्चिन्मात्र भी भेदभाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियों में सर्वथा उदासीन अर्थात निर्लिप्त रहता है। भक्त के अंतःकरण में अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीर सहित संपूर्ण को परमात्मा ही मानता है। इसलिए उसका व्यवहार पक्षपात से रहित होता है। ‘गतव्यथः’- कुछ मिले या न मिले, कुछ भी आये या चला जाय, जिसके चित्त में दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल कभी होती ही नहीं, उस भक्त को यहाँ ‘गतव्यथः’ कहा गया है। यहाँ ‘व्यथा’ शब्द केवल दुःख का वाचक नहीं है। अनुकूलता की प्राप्ति होने पर चित्त में प्रसन्नता तथा प्रतिकूलता की प्राप्ति होने पर चित्त में खिन्नता की जो हलचल होती है, वह भी ‘व्यथा’ ही है। अतः अनुकूलता तथा प्रतिकूलता से अंतःकरण में होने वाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारों के सर्वथा अभाव को ही यहाँ ‘गतव्यथः’ पद से कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 11।29।22
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