श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’- जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान का ही हो जाता है (जो कि वास्तव में है) तब उसके मन-बुद्धि भी अपने-आप भगवान में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्त के मन-बुद्धि भगवान के अर्पित रहें- इसमें तो कहना ही क्या है! जहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्य का मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धांत से श्रेष्ठ समझता है, उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्त के लिए भगवान से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धि पर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान में लगे रहते हैं। ‘यः मद्भक्तः स मे प्रियः’[1]- भगवान को तो सभी प्रिय हैं; परंतु भक्त का प्रेम भगवान के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशा में ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाहम्यहम्।’[2]- इस प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान को भी भक्त प्रिय होता है। संबंध- सिद्ध भक्त के लक्षणों का दूसरा प्रकरण, जिसमें छः लक्षणों का वर्णन है, आगे के श्लोक में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान श्रीराम कहते हैं-
अखिल विस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ।।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया ।।
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ।। (मानस, उत्तर. 87।4, 87 क)
- ↑ गीता 4:11
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