श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘यतात्मा’- जिसका मन-बुद्धि-इंद्रियों सहित शरीर पर पूर्ण अधिकार है, वह ‘यतात्मा’ है। सिद्ध भक्त को मन-बुद्धि आदि वश में करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वश में रहते हैं। इसलिए उसमें किसी प्रकार के इंद्रियजन्य दुर्गुण-दुराचार के आने की संभावना ही नहीं रहती। वास्तव में मन-बुद्धि-इंद्रियाँ स्वाभाविक रूप से सन्मार्ग पर चलने के लिए ही हैं; किंतु संसार से रागयुक्त संबंध रहने से ये मार्गच्युत हो जाती है। भक्त का संसार से किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त संबंध नहीं होता, इसलिए उसकी मन-बुद्धि इंद्रियाँ सर्वथा उसके वश में होती है। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों के लिए आदर्श होती है। ऐसा देखा जाता है कि न्याय-पथ पर चलने वाले सत्पुरुषों की इंद्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे, राजा दुष्यन्त की वृत्ति शकुंतला की ओर जाने पर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रिय-कन्या ही है। ब्रह्मण-कन्या नहीं। कवि कालिदास के कथनानुसार यहाँ संदेह हो, वहाँ सत्पुरुष के अंतःकरण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है- जब न्यायशील सत्पुरुष की इंद्रियों की प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्ग की ओर नहीं होती, तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्म से कभी किसी अवस्था में च्युत नहीं होता) की मन-बुद्धि-इंद्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती हैं! ‘दृढ़निश्चयः’- सिद्ध महापुरुष की दृष्टि में संसार की स्वतंत्र सत्ता का सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धि में एक परमात्मा की ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धि में विपर्यय-दोष (प्रतिक्षण बदलने वाले संसार का स्थायी दिखना) नहीं रहता। उसको एक क्षण भगवान के साथ ही अपने नित्य सिद्ध संबंध का अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धि में नहीं, प्रत्युत ‘स्वयं’ में होता है, जिसका आभास बुद्धि में प्रतीत होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1।21
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