श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । अर्थ- जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमहर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग से रहित है, वह मुझे प्रिय है। व्याख्या- ‘यस्मान्नोद्विजते लोकः’- भक्त सर्वत्र और सब में अपने परमप्रिय प्रभु को ही देखता है। अतः उसकी दृष्टि में मन, वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियाएँ एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए ही होती हैं।[1] ऐसी अवस्था में भक्त किसी भी प्राणी को उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है? फिर भी भक्तों के चरित्र में यह देखने में आता है कि उनकी महिमा, आदर-सत्कार तथा कहीं-कहीं उनकी क्रिया, यहाँ तक कि उनकी सौम्य आकृति मात्र से भी कुछ लोग ईर्ष्यावश उद्विग्न हो जाते हैं और भक्तों से अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं। लोगों को भक्त से होने वाले उद्वेग के संबध में विचार किया जाए, तो यही पता चलेगा कि भक्त की क्रियाएँ कभी किसी के उद्वेग का कारण नहीं होती; क्योंकि भक्त प्राणि मात्र में भगवान को ही देखता है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[2] उसकी मात्र क्रियाएं स्वभावतः प्राणियों के परमहित के लिए ही होती है। उसके द्वारा कभी भूल से भी किसी के अहित की चेष्टा नहीं होती। जिनको उससे उद्वेग होता है, वह उनके अपने राग-द्वेषयुक्त अनुसार स्वभाव के कारण ही होता है। अपने ही दोषयुक्त स्वभाव के कारण उनको भक्त की हितपूर्ण चेष्टाएँ भी उद्वेगजनक प्रतीत होती हैं। इसमें भक्त का क्या दोष? भर्तृहरिजी कहते हैं- मृगमीनसज्जानानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम । ‘हरिण, मछली और सज्जन क्रमशः तृण, जल और संतोष पर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं (किसी को कुछ नहीं कहते); परंतु व्याध, मछुए और दुष्टलोग अकारण ही इनसे वैर करते हैं।’
वास्तव में भक्तों द्वारा दूसरे मनुष्यों के उद्विग्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, प्रत्युत भक्तों के चरित्र में ऐसे प्रसंग देखने में आते हैं कि उनसे द्वेष रखने वाले लोग भी उनके चिन्तन और संग-दर्शन-स्पर्श-वार्तालाप के प्रभाव से अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गए। ऐसा होने में भक्तों का उदारतापूर्ण स्वभाव ही हेतु है। परंतु भक्तों से द्वेष करने वाले सभी लोगों को लाभ ही होता हो- ऐसा नियम भी नहीं है। अगर ऐसा मान लिया जाए कि भक्त से किसी को उद्वेग होता ही नहीं अथवा दूसरे लोक भक्त के विरुद्ध कोई चेष्टा करते ही नहीं या भक्त के शत्रु-मित्र होते ही नहीं, तो फिर भक्त के लिए शत्रु-मित्र, मान-अपमान, निंदा-स्तुति आदि में सम होने की बात[5] नहीं कही जाती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 6:31
- ↑ गीता 7:11
- ↑ भर्तृहरि-नीतिशतक 61
- ↑ मानस 5।41।4
- ↑ जो आगे अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकों में कही गयी है
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