श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । अर्थ- हे पार्थ! मेरे में आविष्ट चित्त वाले उन भक्तों का मैं मृत्युरूप संसार-समुद्र से शीघ्र ही उद्धार करने वाला बन जाता हूँ। व्याख्या- ‘तेषामहं समुद्धर्ता….. मय्यावेशितचेतसाम्’- जिन साधकों का लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय भगवान ही बन गए हैं और जिन्होंने भगवान में ही अनन्य प्रेमपूर्वक अपने चित्त को लगा दिया है तथा जो स्वयं भी भगवान में ही लग गए हैं, उन्हीं के लिए यहाँ ‘मय्यावेशितचेतसाम्’ पद आया है। जैसे समुद्र में जल-ही-जल होता है, ऐसे ही संसार में मौत-ही-मौत है। संसार में उत्पन्न होने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो कभी क्षणभर के लिए भी मौत के थपेड़ों से बचती हो अर्थात उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण मौत के तरफ़ ही जा रही है। इसलिए संसार को ‘मृत्यु-संसार-सागर’ कहा गया है। मनुष्य में अनुकूल और प्रतिकूल- दोनों वृत्तियाँ रहती हैं। संसार की घटना, परिस्थिति तथा प्राणी-पदार्थों में अनुकूल-प्रतिकूल वृत्तियाँ राग-द्वेष उत्पन्न करके मनुष्य को संसार में बाँध देती हैं।[1] यहाँ तक देखा जाता है कि साधक भी संप्रदाय-विशेष और संत-विशेष में अनुकूल-प्रतिकूल भावना करके राग-द्वेष के शिकार बन जाते हैं, जिससे वे संसार-समुद्र से जल्दी पार नहीं हो पाते। कारण कि तत्त्व को चाहने वाले साधक के लिए साम्प्रदायिकता का पक्षपात बहुत बाधक है। साम्प्रदाय का मोहपूर्वक आग्रह मनुष्य को बाँधता है। इसलिए गीता में भगवान ने जगह-जगह इन द्वंद्वों (राग और द्वेष) से छूटने के लिए विशेष जोर दिया है।[2] यदि साधक भक्त अपनी सारी अनुकूलताएँ भगवान में कर ले अर्थात एकमात्र भगवान से ही अनन्य प्रेम का संबंध जोड़ ले और सारी प्रतिकूलताएँ संसार में कर ले अर्थात संसार की सेवा करके अनुकूलता की इच्छा से विमुख हो जाए, तो वह इस संसार बंधन से बहुत जल्दी मुक्त हो सकता है। संसार में अनुकूल और प्रतिकूल वृत्तियों का होना ही संसार में बँधना है। भगवान का यह सामान्य नियम है कि जो जिस भाव से उनकी शरण लेता है, उसी भाव से भगवान भी उसको आश्रय देते हैं- ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’।[3] अतः वे कहते हैं कि यद्यपि मैं सबमें समभाव से स्थित हूँ- ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’[4], तथापि जिनका एकमात्र प्रिय मैं हूँ, जो मेरे लिए ही संपूर्ण कर्म करते हैं और मेरे परायण होकर नित्य-निरंतर मेरे ही ध्यान-जप-चिन्तन आदि में लगे रहते हैं, ऐसे भक्तों का मैं स्वयं मृत्यु-संसार सागर से बहुत जल्दी और सम्यक प्रकार से उद्धार कर देता हूँ।[5] संबंधः भगवान ने दूसरे श्लोक में सगुण-उपासकों को श्रेष्ठ योगी बताया तथा छठे और सातवें श्लोक में यह बात कही कि ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र उद्धार करता हूँ। इसलिए अब भगवान अर्जुन को ऐसा श्रेष्ठ योगी बनने के लिए पहले आठवें श्लोक में समर्पणयोगरूप साधन का वर्णन करके फिर नवें, दसवें और ग्यारहवें श्लोक में क्रमशः अभ्यासयोग, भगवदर्थ कर्म और सर्वकर्मफलत्यागरूप साधनों का वर्णन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:27
- ↑ उदाहरणार्थ- ‘निर्द्वंद्वः’ (2।45); ‘निर्दवंद्वो हि महाबाहो’ (5।3); ‘ते द्वंद्वमोहनिर्मुक्ताः’ (7।28); ‘द्वैर्विमुक्ताः’ (15।5); ‘न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते’ (18।10); ‘रागद्वैषो व्युदस्य च’ (18।51)।
- ↑ गीता 4:11
- ↑ गीता 9:29
- ↑ ‘समुद्धर्ता भवामि’ पदों के अंतर्गत भगवान के ये भाव भी समझने चाहिए कि वह सगुणोपासक मेरी कृपा से साधन की सब विघ्न-बाधाओं को पार करके मेरी कृपा से ही मेरी प्राप्ति कर लेता है (गीता 18।56-58); साधन की कमी को पूरा करके मैं उसे अपनी प्राप्ति करा देता हूँ (गीता 9:22); उनके अंतःकरण में स्थित हुआ तत्त्वज्ञान से उनके अज्ञानजनित अंधकार का नाश कर देता हूँ (गीता 10:11) और उन्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देता हूँ (गीता 18:66)।
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