श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
वास्तव में कर्म कैसे भी किए जाएँ, उनका उद्देश्य एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही होना चाहिए। उपर्युक्त तीनों ही प्रकारों (मदर्पण-कर्म, मदर्थ-कर्म, मत्कर्म) से सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक का कर्मों से किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं रहता; क्योंकि उसमें न तो फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान है और न पदार्थों में और शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों में ममता ही है। जब कर्म करने के साधन शरीर, मन, बुद्धि आदि ही अपने नहीं हैं, तो फिर कर्मों में ममता हो ही कैसे सकती है। इस प्रकार कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना ही वास्तविक समर्पण है। सिद्ध पुरुषों की क्रियाओं का स्वतः ही समर्पण होता है और साधक पूर्ण समर्पण का उद्देश्य रखकर वैसे ही कर्म करने की चेष्टा करता है। जैसे भक्तियोगी अपनी क्रियाओं को भगवान के अर्पण करके कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानयोगी क्रियाओं को प्रकृति से हुई समझकर अपने को उनसे सर्वथा असंग और निर्लिप्त अनुभव करके कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। ‘मत्पराः’- परायण होने का अर्थ है- भगवान को परमपूज्य और सर्वश्रेष्ठ समझकर भगवान के प्रति समर्पण भाव से रहना। सर्वथा भगवान के परायण होने से सगुण-उपासक अपने-आपको भगवान का यंत्र समझता है। अतः शुभ क्रियाओं को वह भगवान के द्वारा करवायी हुई मानता है, तथा संसार का उद्देश्य न रहने के कारण उसमें भोगों की कामना नहीं रहती और कामना न रहने के कारण उससे अशुभ क्रियाएँ होती ही नहीं। ‘अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते’- इन पदों में इष्ट-संबंधी और उपाय-संबंधी दोनों प्रकार की अनन्यता का संकेत है अर्थात उन भक्तों के इष्ट भगवान ही हैं; उनके सिवाय अन्य कोई साध्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं और उनकी प्राप्ति के लिए आश्रय भी उन्हीं का है। वे भगवत्कृपा से ही साधन की सिद्धि मानते हैं, अपने पुरुषार्थ या साधन के बल से नहीं। वे उपाय भी भगवान को मानते हैं और उपेय भी। वे एक भगवान का ही लक्ष्य, ध्येय रखकर उपासना अर्थात जप, ध्यान, कीर्तन आदि करते हैं। |
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