श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । अर्थ- तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा; इसके बाद तू मेरे में ही निवास करेगा- इसमें संशय नहीं है। व्याख्या- ‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय’- भगवान के मत में वे ही पुरुष उत्तम योगवेत्ता है, जिनको भगवान के साथ अपने नित्ययोग का अनुभव हो गया है। सभी साधकों को उत्तम योगवेत्ता बनाने के उद्देश्य से भगवान अर्जुन को निमित्त बनाकर यह आज्ञा देते हैं कि मुझ परमेश्वर को ही परमश्रेष्ठ और परम प्रापणीय मानकर बुद्धि को मेरे में लगा दे और परम प्रियतम मानकर मन को मेरे में लगा दे। भगवान में हमारी स्वतः सिद्ध स्थिति (नित्ययोग) है; परंतु भगवान में मन-बुद्धि के न लगने के कारण हमें भगवान के साथ अपने स्वतः सिद्ध नित्य-संबंध का अनुभव नहीं होता। इसलिए भगवान कहते हैं कि मन-बुद्धि को मेरे में लगा, फिर तू मेरे में ही निवास करेगा (जो पहले से ही है) अर्थात तुझे मेरे में अपनी स्वतः सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाएगा। मन-बुद्धि लगाने का तात्पर्य यह है कि अब तक मनुष्य जिस मन से जड़ संसार में ममता, आसक्ति, सुख-भोग की इच्छा, आशा आदि के कारण बार-बार संसार का ही चिन्तन करता रहा है और बुद्धि से संसार में ही अच्छे-बुरे का निश्चय करता रहा है, उस मन को संसार से हटाकर भगवान में लगाए तथा बुद्धि के द्वारा दृढ़ता से निश्चय करे कि ‘मैं केवल भगवान का ही हूँ और परमश्रेष्ठ एवं परम प्रापणीय भगवान ही है।’ ऐसा दृढ़ निश्चय करने से संसार का चिन्तन और महत्त्व समाप्त हो जाएगा और एक भगवान के साथ ही संबंध रह जाएगा। यही मन-बुद्धि का भगवान से लगाना है। मन-बुद्धि लगाने में भी बुद्धि का लगाना मुख्य है। किसी विषय में पहले बुद्धि का ही निश्चय होता है और फिर बुद्धि के उस निश्चय को मन स्वीकार कर लेता है। साधन करने में भी पहले (उद्देश्य बनाने में) बुद्धि की प्रधानता होती है, फिर मन की प्रधानता होती है। जिन पुरुषों का लक्ष्य भगवत्प्राप्ति नहीं है, उनके मन-बुद्धि भी, वे जिस विषय में लगाना चाहेंगे, उस विषय में लग सकते हैं। उस विषय में मन-बुद्धि लग जाने पर उन्हें सिद्धियाँ तो प्राप्त हो सकती हैं, पर (भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य न होने से) भगवत्प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः साधक को चाहिए कि बुद्धि से यह दृढ़ निश्चय कर ले कि ‘मुझे भगवत्प्राप्ति ही करनी है।’ इस निश्चय में बड़ी शक्ति है। ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि होने में सबसे बड़ी बाधा है- भोग और संग्रह का सुख लेना। सुख की आशा से ही मनुष्य की वृत्तियाँ धन, मान-बड़ाई आदि पाने का उद्देश्य बनाती हैं, इसलिए उसकी बुद्धि बहुत भेदों वाली तथा अनन्त हो जाती है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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