श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
इसी अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि सब मेरे से ही पैदा होते हैं और सबमें मेरी ही शक्ति है। इसमें भगवान का तात्पर्य यही है कि तुम्हें जहाँ-कहीं और जिस-किसी में विशेषता, महत्ता, सुंदरता, बलवत्ता आदि दिखे, वह सब मेरी ही है, उनकी नहीं। एक वेश्या बड़े सुंदर स्वरों में गाना गा रही थी, तो उसको सुनकर एक संत मस्त हो गए कि देखो! ठाकुर जी ने कैसा कंठ दिया है! कितनी सुंदर आवाज दी है! तो संत की दृष्टि वेश्या पर नहीं गयी, प्रत्युत भगवान पर गयी कि इसके कण्ठ में जो आकर्षण है, मिठास है, वह भगवान की है। ऐसे ही कोई फूल दिखे तो राजी हो जाए कि वाह-वाह, भगवान ने इसमें कैसी सुंदरता भरी है! कोई किसी को बढ़िया पढ़ा रहा है तो बढ़िया पढ़ाने की शक्ति भगवान की है, पढ़ाने वाले की नहीं। देवताओं को बृहस्पति प्रिय लगते हैं, रघुवंशियों को वसिष्ठ जी प्रिय लगते हैं, किसी को सिंह में विशेषता दिखती है, किसी को रुपए बहुत प्यारे लगते हैं, तो उनमें जिस शक्ति, महत्ता, विशेषता आदि को लेकर आकर्षण, प्रियता, खिंचाव हो रहा है, वह शक्ति, महत्ता आदि भगवान की ही है, उनकी अपनी नहीं। इस तरह जिस किसी में जहाँ-कहीं विशेषता दिखे, वह भगवान की ही दिखनी चाहिए। इसलिए भगवान ने अनेक तरह की विभूतियाँ बतायी हैं। इसका तात्पर्य है कि उन विभूतियों में श्रद्धा, रुचि के भेद से आकर्षण हरेक का अलग-अलग होगा, एक समान सबको विभूतियाँ अच्छी नहीं लगेंगी, पर उन सबमें शक्ति भगवान की है। यद्यपि जिस-किसी में जो भी विशेषता है, वह परमात्मा की है, तथापि जिनसे हमें लाभ हुआ है अथवा हो रहा है, उनके हम जरूर कृतज्ञ बनें, उनकी सेवा करें। परंतु उनकी व्यक्तिगत विशेषता मानकर वहाँ फँस न जाएँ- यह सावधानी रखें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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