श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । अर्थ- जो-जो ऐश्वर्ययुक्त शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग) के अंश से उत्पन्न हुई समझो। व्याख्या- ‘यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा’- संसारमात्र में जिस-किसी सजीव-निर्जीव वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया आदि में जो कुछ ऐश्वर्य दिखे, शोभा या सौंदर्य दिखे, बलवत्ता दिखे, तथा जो कुछ भी विशेषता, विलक्षणता, योग्यता दिखे, उन सबको मेरे तेज के किसी एक अंश से उत्पन्न हुई जानो। तात्पर्य है कि उनमें वह विलक्षणता मेरे योग से, सामर्थ्य से, प्रभाव से ही आयी है- ऐसा तुम समझो- ‘तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम्।’ मेरे बिना कहीं भी और कुछ भी विलक्षणता नहीं है। मनुष्य को जिस-जिसमें विशेषता मालूम दें, उस-उसमें भगवान की ही विशेषता मानते हुए भगवान का ही चिन्तन होना चाहिए। अगर भगवान को छोड़कर दूसरे वस्तु, व्यक्ति आदि की विशेषता दिखती है, तो यह पतन का कारण है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मन में यदि पति के सिवाय दूसरे किसी पुरुष की विशेषता रखती है, तो उसका पातिव्रत्य भंग हो जाता है, ऐसे ही भगवान के सिवाय दूसरी किसी वस्तु की विशेषता को लेकर मन खिंचता है, तो व्यभिचार-दोष आ जाता है अर्थात भगवान के अनन्य भाव का व्रत भंग हो जाता है। संसार में छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि में जो भी महत्ता, सुंदरता, सुखरूपता दिखती है और जो कुछ लाभरूप, हितरूप दिखता है, वह वास्तव में सांसारिक वस्तु का है ही नहीं। अगर उस वस्तु का होता तो वह सब समय रहता और सबको दिखता, पर वह न तो सब समय रहता है और न सबको दिखता है। इससे सिद्ध होता है कि वह उस वस्तु का नहीं है। तो फिर किसका है? उस वस्तु का जो आधार है, उस परमात्मा का है। उस परमात्मा की झलक ही उस वस्तु में सुंदरता, सुखरूपता आदि रूपों से दिखती है। परंतु जब मनुष्य की वृत्ति परमात्मा की महिमा की तरफ न जाकर उस वस्तु की तरफ ही जाती है, तब वह संसार में फँस जाता है। संसार में फँसने पर उसको न तो कुछ मिलता है और न उसकी तृप्ति ही होती है। इसमें सुख नहीं है, इससे तृप्ति नहीं होती- इतना अनुभव होने पर भी मनुष्य का वस्तु आदि में सुख रूपता का वहम मिटता नहीं। मनुष्य को सावधानी के साथ विचारपूर्वक देखना चाहिए कि प्रतिक्षण मिटने वाली वस्तु में जो सुख दिखता है, वह उसका कैसे हो सकता है! वह वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है तो उसमें दिखने वाली महत्ता, सुंदरता उस वस्तु की कैसे हो सकती है! |
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