श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् । अर्थ- मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओं में किरणों वाला सूर्य हूँ। मैं मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ। व्याख्या- ‘आदित्यानामहं विष्णुः’- अदिति के धाता, मित्र आदि जितने पुत्र हैं, उनमें ‘विष्णु’ अर्थात वामन मुख्य हैं। भगवान ने ही वामनरूप से अवतार लेकर दैत्यों की संपत्ति को दानरूप से लिया और उसे अदिति के पुत्रों (देवताओं) को दे दिया[2]। ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’- चंद्रमा, नक्षत्र, तारा, अग्नि आदि जितनी भी प्रकाशमान चीजें हैं, उनमें किरणों वाला सूर्य मेरी विभूति है; क्योंकि प्रकाश करने में सूर्य की मुख्यता है। सूर्य के प्रकाश से ही सभी प्रकाशमान होते हैं। ‘मरीचिर्मरुतामस्मि’- सत्त्वज्योति, आदित्य, हरित आदि नामों वाले को उनचास मरुत हैं, उनका मुख्य तेज मैं हूँ। उस तेज के प्रभाव से ही इंद्र के द्वारा दिति के गर्भ के सात टुकड़े करने पर और उन सातों के फिर सात-सात टुकड़े करने पर भी वे मरे नहीं प्रत्युत एक से उनचास हो गए। ‘नक्षत्राणामहं शशी’- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका आदि जो सत्ताईस नक्षत्र हैं, उन सबका अधिपति चंद्रमा मैं हूँ। इन विभूतियों में जो विशेषता- महत्ता है, वह वास्तव में भगवान की है। [इस प्रकरण में जिन विभूतियों का वर्णन आया है, उनको भगवान ने विभूति रूप से ही कहा है, अवतार रूप से नहीं; जैसे- अदिति के पुत्रों से वामन मैं हूँ[3], शस्त्रधारियों मंक राम मैं हूँ[4], वृष्णिवंशियों में वासुदेव (कृष्ण) और पांडवों में धनंजय (अर्जुन) मैं हूँ[5] इत्यादि। कारण कि यहाँ प्रसंग विभूतियों का है।] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इन विभूतियों में षष्ठी का प्रयोग किया गया है। षष्ठी का प्रयोग निर्धारण अर्थात मुख्यता के अर्थ में भी होता है और संबंध के अर्थ में भी। जहाँ निर्धारित में षष्ठी होती है, वहाँ हिंदी की ‘मैं विभक्ति का प्रयोग होता है, और जहाँ संबध में षष्ठी होती है, वहाँ हिंदी की ‘का’, ‘की’ विभक्तियों का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ, इस श्लोक के पूर्वार्ध में निर्धारण के अर्थ में और उत्तरार्ध में संबंध के अर्थ में षष्ठी का प्रयोग हुआ है।
- ↑ बारह महीनों में जो बारह आदित्य होते हैं, उनमें कार्तिक मास के सूर्य का नाम भी ‘विष्णु’ है।
- ↑ गीता 10:21
- ↑ गीता 10:31
- ↑ गीता 10:37
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