श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
इस बीसवें श्लोक में भगवान ने प्राणियों में जो आत्मा है, जीवों का जो स्वरूप है, उसको अपनी विभूति बताया है। फिर बत्तीसवें श्लोक में भगवान ने सृष्टि रूप से अपनी विभूति बतायी कि जो जड़-चेतन, स्थावर-जंगम सृष्टि है, उसके आदि में ‘मैं एक-ही बहुत रूपों में हो जाऊँ’ (‘बहु स्यां प्रजायेयेति’[1])- ऐसा संकल्प करता हूँ और अंत में मैं ही शेष रहता हूँ- ‘शिष्यते शेषसंज्ञः’।[2] अतः बीच में भी सब कुछ मैं ही हूँ- ‘वासुदेवः सर्वम्’[3] ‘सदसच्चाहमर्जुन’;[4] क्योंकि जो तत्त्व आदि और अंत में होता है, वही तत्त्व बीच में होता है। अंत में उन्तालीसवें श्लोक में भगवान ने बीच (कारण) रूप से अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ, मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह- तीन श्लोकों में मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकों में जो समुदाय में मुख्य हैं, जिनका समुदाय पर आधिपत्य है, जिनमें कोई विशेषता है, उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परंतु साधक को चाहिए कि वह इन विभूतियों की महत्ता, विशेषता, सुंदरता, आधिपत्य आदि की तरफ ख्याल न करे, प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान से ही प्रकट होती हैं, इनमें जो महत्ता आदि है, वह केवल भगवान की है; ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं- इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुन का प्रश्न भगवान के चिन्तन के विषय में है[5], किसी वस्तु, व्यक्ति के चिन्तन के विषय में नहीं। ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’- साधक इन विभूतियों का उपयोग कैसे करे? इसे बताते हैं कि जब साधक की दृष्टि प्राणियों की तरफ चली जाए, तब वह ‘संपूर्ण प्राणियों में आत्मारूप से भगवान ही है’- इस तरह भगवान का चिन्तन करे। जब किसी विचारक साधक की दृष्टि सृष्टि की तरफ चली जाए, तब वह ‘उत्पत्ति-विनाशशील और हरदम परिवर्तनशील सृष्टि के आदि, मध्य तथा अंत में एक भगवान ही है’ इस तरह भगवान का चिन्तन करे। सभी प्राणियों के मूल की तरफ उसकी दृष्टि चली जाए, तब वह ‘बीजरूप से भगवान ही हैं, भगवान के बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है और हो सकता भी नहीं’- इस तरह भगवान का चिन्तन करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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