महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
16.द्रौपदी स्वयंवर
दूसरे ब्राह्मणों ने बड़े जोश के साथ इसका प्रतिवाद करते हुए कहा- "इस युवक में ऐसा उत्साह और साहस झलक रहा है कि जिससे आशा होती है कि यह जरूर ही जीतेगा। जो काम क्षत्रियों से न हो सका, वह शायद इस ब्राह्मण के हाथों हो जाये। ब्राह्मण में शारीरिक बल भले ही कम हो, तपोबल तो है ही! अतः इसके इस प्रयत्न करने में कौन-सी आपत्ति हो सकती है?" इस प्रकार अनेक चर्चाओं के बाद ब्राह्मण समूह भी अर्जुन के प्रतियोगिता में भाग लेने के पक्ष में हो गया और सब ब्राह्मणों ने एक स्वर में ‘तथास्तु’ कहकर अर्जुन को आशीर्वाद दे दिया। इधर अर्जुन धनुष के पास जाकर खड़ा हो गया और राजकुमार धृष्टद्युम्न से पूछा- "कुमार, क्या ब्राह्मण भी इस प्रतियोगिता में भाग लेकर लक्ष्य-वेध कर सकते हैं?" धृष्टद्युम्न ने उत्तर दिया- "द्विजोत्तम, जो कोई भी इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर शर्त के अनुसार लक्ष्य-वेध करेगा, वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, चाहे शूद्र हो, मेरी बहन उसकी पत्नी हो जायेगी। मैं यह वचन दे चुका हूँ। इसे न तोडूंगा।" तब अर्जुन ने भगवान नारायण का ध्यान करके धनुष हाथ में लिया और उस पर डोरी चढ़ा दी। उसने धनुष पर तीर चढ़ाया और आश्चर्यचकित लोगों को मुस्कराते हुए देखा। लोग मंत्र-मुग्ध से उसे देख रहे थे। उसने और देरी न करके तुरन्त एक-के-बाद-एक पांच बाण उस घूमते हुए चक्र में मारे और हजारों लोगों के देखते-देखते निशाना टूटकर नीचे गिर पड़ा। सभा में कोलाहल मच गया! बाजे बज उठे। उपस्थित हजारों ब्राह्मणों ने अपने-अपने अंगोछे ऊपर फेंककर आनन्द का प्रदर्शन किया। ब्राह्मण तो ऐसे खुश हुए मानो द्रौपदी को उन सब ने पा लिया हो। उस समय राजकुमारी द्रौपदी की शोभा कुछ अनूठी हो गई। वह आगे बढ़ी और सकुचाते हुए लेकिन प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मण-वेष में खड़े अर्जुन को वरमाला पहना दी। माता को यह शुभ समाचार सुनाने के लिये युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तीनों भाई मण्डप से उठकर चले गये। परन्तु भीम नहीं गया। उसे भय था कि निराश राजकुमार कहीं अर्जुन को कुछ कर न बैठें और भीमसेन का अनुमान ठीक ही निकला। राजकुमारों में बड़ी हलचल मच गई। उन्होंने शोर मचाया- "ब्राह्मणों के लिये स्वयंवर की रीति नहीं होती। यदि इस कन्या को कोई भी राजकुमार पसन्द न था तो उसे चाहिए था कि वह कुँआरी ही रह जाती और चिता पर चढ़ जाती, बजाय इसके कि वह ब्राह्मण की पत्नी बने। यह कैसे हो सकता है? यह तो स्वयंवर की प्रथा पर कुठाराघात करना है। कम से कम धर्म की रक्षा के लिए हमें चाहिए कि इस अनुचित ब्याह को न होने दें।" राजकुमारों का जोश बढ़ता गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि भारी विप्लव मच जायेगा। यह हाल देखकर भीमसेन चुपके से बाहर गया, एक पेड़ को जड़ से उखाड़कर ऐसे झंझोड़ा कि उसके सारे पत्ते झड़ गए। फिर उसे मामूली लाठी की तरह कंधे पर रखकर अर्जुन की बगल में आकर खड़ा हो गया। अर्जुन ब्राह्मण के वेष में मृगछाला ओढ़े खड़ा था। द्रौपदी उसके मृगचर्म का सिरा पकड़े हुए चुपचाप खड़ी रही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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