महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
101.सेर भर आटा
पत्नी ने इतना कहकर अपने हिस्से का आटा पति के आगे रख दिया। लेकिन ब्राह्मण ने पत्नी की बात न मानी। बोले- "सती! तुम्हारा कहना ठीक नहीं। पति का कर्तव्य हैं कि अपनी स्त्री का भरण-पोषण करे। जब जानवर और कीड़े-मकोड़े तक अपनी मादा का भरण-पोषण सावधानी के साथ करते हैं तो फिर मैं मनुष्य होकर अपनी सेवा करने वाली पत्नी का भरण-पोषण न करूं तो मेरा क्या भला होगा? प्रिये! तुम भूखी हो और तुम्हारी हड्डियां निकल आई हैं। शरीर पर मांस का लेश तक नहीं। ऐसी दशा में तुम्हें भूखी रखकर मैं अतिथि का सत्कार करने लग जाऊं तो मुझे उसका कौन-सा फल प्राप्त होगा?" यह सुनकर पत्नी ने कहा- "नाथ! मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि सभी बातों में आपका-मेरा समान अधिकार है। जैसे आपने स्वयं भूखे रहते हुए भी अतिथि को अपने हिस्से का आटा खिलाया वैसे ही कृपा करके मेरा हिस्सा खिला दीजिये। मेरी यह प्रार्थना अस्वीकार न कीजिये।" पत्नी के यों आग्रह करने पर ब्राह्मण ने उसके हिस्से का भी आटा अतिथि को खिला दिया। उसे खा चुकने पर भी अतिथि की भूख न मिटी। इस पर ब्राह्मण और भी उदास हो गया। यह हाल देखकर ब्राह्मण के पुत्र ने कहा- "पिताजी! यह मेरे हिस्से का भी आटा लीजिये और अतिथि को खिला दीजिये।" यह सुन पिता व्यथित होकर बोले- "बेटा! जो उम्र में बूढ़े हैं वे भूख सह सकते हैं। जवानों की भूख बड़ी तेज हुआ करती है। मेरा मन नहीं मानता कि तुम्हारा भी हिस्सा लेकर अतिथि को खिला दूं।" पर पुत्र न माना और अनुरोध करके कहा- "पिताजी! पिता के बूढ़े हो जाने पर उनकी रक्षा करना पुत्र का ही कर्तव्य होता है। यह भी बात नहीं कि पिता और पुत्र अलग-अलग अस्तित्व रखते हैं। आखिर पिता ही तो पुत्र बनता है। इसलिये मेरे हिस्से का आटा भी आप ही का है। आप मेरा हिस्सा स्वीकार कर लें और अधभूखे अतिथि को संतुष्ट करें।" पिता ने हर्ष के साथ कहा- "पुत्र! धन्य है तुम्हें! तुम्हारे शील, इंद्रिय-दमन आदि हर बात से तुम पर मुझे गर्व हो सकता है, तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे भी हिस्से का आटा मैं स्वीकार करता हूँ। यह कहकर ब्राह्मण ने उसे लेकर अतिथि को खिला दिया। पर उसे खाने के बाद भी अतिथि का पेट नहीं भरा। उसके मुख पर संतोष की झलक दिखाई न दी। यह देख ब्राह्मण बहुत लज्जित हो गये और किंकर्तव्यविमूढ़-से बैठे रहे। उनका यह हाल देखकर उनकी पुत्र-वधू ने कहा- "पिता जी, मैं भी अपना हिस्सा अतिथिदेव के लिये देती हूँ। लीजिए इसे भी अतिथि को खिला दीजिये। आपके आशीर्वाद से मेरा स्थायी कल्याण होगा।" बहू की बात सुनकर ब्राह्मण बोले- "बेटी, अभी तुम लड़की हो। तकलीफ सहते-सहते तुम्हारा भी रंग फीका पड़ गया है और तुम दुबली हो गई हो। तुम्हें भूखा रखकर अतिथि को तुम्हारा कौर खिला दूँ तो मैं धर्म का नाश करने वाला साबित हो जाऊँगा। तुम्हारा भूखों तड़पना मैं कैसे देख सकता हूँ?" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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