महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
101.सेर भर आटा
यह सुन फिर नेवला एक बार कहकहा लगाकर हंसा और बोलने लगा- "हे विप्रगण! मैंने जो कुछ कहा बिलकुल ठीक कहा है। न तो मेरा आप लोगों से कोई द्वेष है और न राजाधिराज युधिष्ठिर से ही मैं कोई ईर्ष्या करता हूँ। फिर भी मैं जोर देकर कहता हूँ कि आप लोगों ने धूमधाम से इतना धन खर्च करके जो यह महायज्ञ किया वह उस कुरुक्षेत्र वाले उस ब्राह्मण के दिये दान की समता कदापि नहीं कर सकता। दानवीर तो वही द्विजवर थे। अपने दान-पुण्य के फलस्वरूप उनको अपनी पत्नी, पुत्र और बहू के साथ विमान में बैठकर सदेह स्वर्ग सिधारते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा था। आप सब लोगों को मैं उसका सारा हाल सुनाता हूं- इस महाभारत युद्ध से पहले, कुरुक्षेत्र में एक ब्राह्मण रहा करते थे। खेत में बिखरे हुए अनाज के दानों को चुन-चुनकर इकट्ठा करके वह अपनी आजीविका चलाते थे। ब्राह्मण, उनकी पत्नी, पुत्र और पुत्र-वधू चारों इसी उच्छ-वृत्ति से दिन गुजारते थे। उन्होंने अपना यह नियम बना रखा था कि जो कुछ अनाज इकट्ठा हो उसको बराबर बांटकर तीसरे पहर के शुरू होने से थोड़ी देर पहले खा लिया करें। किसी दिन नियत समय तक कोई भी अनाज नहीं मिलता था। जिस दिन ऐसा होता उस दिन सब उपवास कर लिया करते और अगले दिन अनाज मिलने पर नियत समय पर खा लेते थे। उसी समय एक बार पानी न बरसने के कारण भारी अकाल पड़ा। सब लोग भूख-प्यास से तड़पने लगे। जब खेतों में कुछ उगता ही न था तो फसल भी नहीं कटती थी; और जब फसल नहीं कटती तो अनाज के दाने बिखरते कहाँ से। इस कारण ब्राह्मण और उनके कुटुम्ब को लगातार कई दिनों तक भूखे रहना पड़ा। एक दिन चारों जने भूखे-प्यासे धूप में तपते हुए दूर-दूर तक घूमे-फिरे तब कहीं जाकर सेर भर ज्वार के दाने इकट्ठे कर पाये। उनका आटा पीसा गया और यथा-विधि पूजा-पाठ आदि समाप्त होने पर उसको बराबर चार हिस्सों में बांटकर चारों व्यक्ति आनन्द से खाने बैठे। ठीक उसी समय कोई भूखा ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचा। अतिथि को आया देख ब्राह्मण ने उठकर उसका विधिवत सत्कार किया। वे लोग इतने निर्मल-हृदय के थे कि स्वयं भूखे रहते हुए भी अतिथि का सत्कार करते हुए उन्होंने ऐसा अनुभव किया मानो उनका जीवन सार्थक हो गया। वह हर्ष से फूले न समाये। उन्होंने अतिथि से पूछा- "विप्रवर,मैं गरीब हूँ। यह आटा नियमपूर्वक परिश्रम से कमाया हुआ है। कृपया आप इसका भोजन करें। आपका कल्याण हो।" इतना कहकर ब्राह्मण ने अपने हिस्से का आटा अतिथि के सामने रख दिया और अतिथि ने उसे खा लिया। फिर भी उसकी भूख न मिटी। उसने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन भूखी नजर से ब्राह्मण की ओर देखा। ब्राह्मण ने देखा, अतिथि को संतोष नहीं हुआ। इससे वह चिंतित हो गये। उन्हें चिंतित देखकर उनकी पत्नी ने कहा- "नाथ, मेरे हिस्से का आटा भी अतिथि को खिला दीजिये। यदि उससे उन्हें संतोष हो गया तो मैं भी संतुष्ट हो जाऊंगी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज