महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
67.चौथा दिन
इस भूमिका के साथ संजय ने आगे कहना शुरू किया– चौथे दिन का युद्ध बंद हुआ। रात हो चली। दुर्योधन अकेले पितामह भीष्म के शिविर में गया और बड़ी नम्रता के साथ पूछा- "पितामह, यह तो सारा संसार जानता है कि आप, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, भूरिश्रवा, विकर्ण, भगदत्त आदि साहसी वीर मृत्यु से जरा भी नहीं डरते। इसमें कोई संदेह नहीं कि आप लोगों की शक्ति और पराक्रम के सामने पांडवों की सेना कुछ नहीं है। आपमें से एक-एक के विरुद्ध पांचों पांडव इकट्ठे भी जुट जायें, फिर भी उनकी जीत नहीं हो सकेगी। इतना सब कुछ होते हुए भी, क्या कारण है कि कुंती के पुत्र हमें रोज युद्ध में हराते जाते हैं? अवश्य इसमें कोई रहस्य मालूम होता है। मुझे यह समझाइये।" भीष्म ने शांत भाव से उत्तर दिया– "बेटा दुर्योधन! मेरी बात सुनो। मैंने कितने ही प्रकार से तुम्हें समझाया। ऐसी युक्तियां बताई जिनसे तुम्हारा हित हो सकता था; परंतु तुमने एक न सुनी। बड़े-बूढों का कहा न माना। पर अब भी चेत जाओ। पांडवों से संधि कर लो, जिसमें तुम्हारी भी कुशल हो और संसार की भी। आखिर दोनों एक ही कुल के हो-भाई-भाई हो। राज्य को आपस में बांटकर दोनों बंधुगण सुखपूर्वक भोग सकते हो। इससे पहले भी मैंने तुम्हें यही सलाह दी; पर तुमने नहीं मानी। उल्टे पांडवों का अपमान किया। अब तुम यह अपने ही किये का फल पा रहे हो। भगवान कृष्ण जिनके रक्षक हैं, उन पांडवों की विजय अवश्य होगी, इसमें संदेह नहीं। अब भी मैं तुमको सावधान किये देता हूँ कि पांडवों से संधि कर लेना ठीक होगा। इससे एक तो तुम्हें शक्तिमान भाई प्राप्त होंगे। दूसरे तुम राज्य का भी सुख भोग सकते हो। स्मरण रहे कि श्री कृष्ण और अर्जुन नर-नारायण के अवतार हैं। उनकी अवहेलना करोगे तो तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है।" दुर्योधन अपने शिविर में चला गया। पलंग पर लेटा हुआ बड़ी देर तक विचारों में डूबा रहा। इस प्रकार सोचते-सोचते उसे नींद आई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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