महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
30.अगस्त्य मुनि
पुत्री का नाम लोपामुद्रा रखा गया। दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती हुई लोपामुद्रा विवाह योग्य वय को प्राप्त हो गई। विदर्भराज की कन्या की अनूठी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। परन्तु फिर भी अगस्त्य के डर के मारे कोई राजकुमार उससे ब्याह करने को प्रस्तुत न होता था। इसी बीच अगस्त्य मुनि फिर एक बार विदर्भराज की सभा में आ पहुँचे और राजा से बोले– "पितरों को संतुष्ट करने के लिए पुत्र पाने का इच्छुक हूँ। अपने दिये वचन के अनुसार अपनी पुत्री का ब्याह मेरे साथ कर दीजिए।" अनेक सखियों से घिरी हुई और दास-दासियों की सेवा-टहल में पली अपनी लाड़ली बेटी को जंगल में रहनेवाले और साग-पात खानेवाले मुनि के हाथों सौंप देना राजा को बड़ा नागवार गुजरा। फिर भी वचन जो दे चुके थे। ऋषि के क्रोध का भी डर था। राजा बड़े असमंजस में पड़ गये। राजा और रानी को इस प्रकार चिन्तित देखकर लोपामुद्रा ने कहा- "आप उदास क्यों होते है? मेरे कारण आपको मुनि का शाप सहना पड़े, यह कभी नहीं हो सकता। मुनि के साथ मेरा ब्याह कर दीजिए। मुझे भी यही पसंद है।" बेटी की बातों से राजा को सांत्वना मिली और राजा ने अगस्त्य मुनि के साथ लोपामुद्रा का विधिवत विवाह कर दिया। ऋषि वन में जाने लगे तो लोपामुद्रा भी उनके साथ चलने को तैयार हुई। "ये कीमती आभूषण और वस्त्र यहीं उतार दो।" मुनि ने कहा।
स्त्रियोचित लज्जा के साथ लोपामुद्रा ने सिर झुका लिया और हाथ जोड़कर कहा- "नाथ! मैं वैसे आपकी आज्ञा-पालन करने के लिए बाध्य हूँ। किन्तु मेरी भी इच्छा आप पूरी कर देने की कृपा करें।" उसके अनुपम रूप और शील स्वभाव से मुग्ध होकर मुनि ने कहा– "तथास्तु।" लोपामुद्रा ने कहा- "मेरी इच्छा है कि पिता के यहाँ जो कोमल शैय्या और सुन्दर वेश-भूषा मुझे प्राप्त थी, यहाँ भी मिले। आप भी सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करें और तब हम दोनों संभोग करें।" "तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए तो धन चाहिए। हम तो ठहरे जंगल में रहने वाले दरिद्र! धन कहाँ से लायें?" अगस्त्य ने कहा। "स्वामिन! आपके पास जो तपोबल है यही सब कुछ है। आप चाहें तो संसार का ऐश्वर्य पल-भर में खड़ा कर सकते हैं।" लोपामुद्रा ने कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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