महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
30.अगस्त्य मुनि
"तुम्हारा कहना ठीक तो है। पर यदि मैं तपोबल से धनार्जन करने लग जाऊं तो फिर मेरा तपोबल सांसारिक वस्तु के लिए खर्च हो जायेगा। क्या तुम्हें यह पसन्द है। कि मैं इस प्रकार तपोबल गंवाऊं?" लोपामुद्रा ने कहा। "तुम्हारा कहना ठीक तो है। पर यदि मैं तपोबल से धनार्जन करने लग जाऊं तो फिर मेरा तपोबल सांसरिक वस्तु के लिए खर्च हो जायेगा। क्या तुम्हें यह पसन्द है कि मैं इस प्रकार तपोबल गंवाऊं?" अगस्त्य ने पूछा। "नहीं, मैं यह नहीं चाहती कि आपकी तपस्या इन बातों के लिए नष्ट हो। मेरी मंशा तो यह थी कि आप तपोबल का सहारा लिये बगैर ही कहीं से काफी धन ले आते।" लोपामुद्रा ने उत्तर दिया। "अच्छा भाग्यवती! मैं वही करूंगा, जिससे तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।" कहकर अगस्त्य मुनि एक मामूली ब्राह्मण की भाँति राजाओं से धन की याचना करने चल पड़े। अगस्त्य मुनि एक ऐसे राजा के यहाँ गये जो अपने अटूट धन-वैभव के लिए प्रसिद्ध था। जाकर बोले– "राजन, कुछ धन की याचना करने आया हूँ। किन्तु मुझे दान देने से ऐसा न हो कि किसी और जरूरतमंद को तकलीफ पहुँचे या और आवश्यक खर्च में कमी पड़ जाये।" राजा ने अपने राज्य के आय और व्यय का सारा हिसाब उठाकर अगस्त्य ऋषि के सामने रख दिया और कहा- "आप स्वयं ही देख लें। व्यय से जितनी अधिक आय हो, वह आप ले लें।" अगस्त्य ने सारा हिसाब उलट-पलट कर देखा तो मालूम हुआ कि जितनी आमदनी है, उतना ही खर्च भी है। बचत कुछ नहीं है। किसी भी सरकार का आय और व्यय बराबर ही होता है। उन दिनों भी यही बात थी। अगस्त्य ने सोचा कि यदि मैं यहाँ से कुछ लूंगा तो प्रजा को कष्ट पहुँचेगा, इसलिए राजा को आशीष देकर वह दूसरे राजा के यहाँ जाने लगे। यह देखकर राजा ने कहा- "मैं भी आपके साथ चलूंगा।" अगस्त्य ने उसे अपने साथ ले लिया और एक दूसरे राजा के यहाँ गये। वहाँ भी यही हाल था। इस प्रकार अगस्त्य मुनि ने अपने अनुभव से जान लिया कि न्यायोचित ढंग से कर लेकर अपने राजोचित कर्तव्य का शास्त्रानुसार पालन करने वाले किसी राजा से जितना सा भी दान लिया जायेगा, उतना ही कष्ट उसी प्रजा को पहुँचेगा। यह सोच अगस्त्य तथा सब राजाओं ने तय किया कि इलवल नाम के एक अत्याचारी असुर राजा के पास जाकर दान लिया जाये। इलवल और वातापि दोनों असुर भाई-भाई थे। ब्राह्मणों से उनको बड़ी नफरत थी। उन दिनों ब्राह्मण लोग मांस खा लेते थे। इससे फायदा उठाकर इलवल ब्राह्मणों को न्यौता देता और अपने भाई वातापी को असुर माया से बकरा बनाकर उसी का मांस ब्राह्मण मेहमानों को खिलाता। ब्राह्मणों के खा चुकने पर इलवल पुकारता, "वातापी! आ जाओ" मरे हुए को जिलाने की शक्ति इलवल को प्राप्त थी। उससे वातापी ब्राह्मणों का पेट चीरकर हंसता हुआ सजीव निकल आता। इस प्रकार कितने ही ब्राह्मणों को इन असुरों ने मार डाला था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज