श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी17. विश्वरूप का वैराग्य
को देशः कानि मित्राणि कः कालः कौ व्ययागमौ। भगवत्पादपद्मों से पृथक होकर प्राणी प्रारब्धकर्मानुसार असंख्य योनियों में भ्रमण करता हुआ मनुष्ययोनि में अवतीर्ण होता है। एक यही योनि ऐसी है जिसमें वह अपने सत्स्वरूप को पुनः प्राप्त कर सकता है। मनुष्ययोनि ही कर्मयोनि है, शेष सभी भोगयोनियाँ हैं। मनुष्य ही कर्म के द्वारा निष्कर्म और पुनरावृत्ति से रहित बन सकता है। पुनरावृत्ति कर्मवासनाओं के द्वारा होती है। जीव अपनी वासनाओं के द्वारा फिर-फिर जन्म ग्रहण करता है और मरणके दुःखों को भोगता है। यदि कर्मवासना क्षय हो जाय तो परावर भगवान का दर्शन हो जाता है। भगवद्दर्शन के तीन मुख्य धर्म हैं- (1) हृदय में जो अज्ञान की ग्रन्थि पड़ी हुई है, जिसके द्वारा असत पदार्थों को सत समझे बैठे हैं वह ग्रन्थि खुल जाती है। (2) अज्ञान संशय के द्वारा उत्पन्न होता है और संशय ही विनाश का मुख्य हेतु है, परावर के साक्षात हो जाने पर सर्वसंशय आप-से-आप मिट जाते हैं। (3) संसृति का मुख्य हेतु है कर्मबन्ध। कर्म ही प्राणियों को नाना योनियों में सुख-दुःख भुगताते रहते हैं। जिसे भगवत-साक्षात्कार हो गया है उसके सभी कर्म क्षय हो जाते हैं। बस, फिर क्या है! वह संसार-चक्र से मुक्त होकर अपने सत्स्वरूप को प्राप्त कर लेता है- भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। यही तो जीव का परम पुरुषार्थ है। त्याग-धर्म सृष्टि के आदि में सबसे प्रथम उत्पन्न हुआ। सभी प्राणियों का मुख्य और प्रधान उद्देश्य है ‘त्याग’। इन संसारी विषयों का जभी त्याग कर सके तभी त्याग कर देना चाहिये। इसीलिये सृष्टि के आदि में सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन- ये चार त्यागी संन्यासी ही उत्पन्न हुए। भगवान के वामन, कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभदेव आदि बहुत-से अवतारों ने त्याग का ही उपदेश दिया है। त्याग ही ‘साधन’ है इसीलिये मनुष्य को ही साधक कहा गया है। बहुत-से लोग कहते हैं गृहस्थ-धर्म यदि निष्कामभाव से किया जाय तो सर्वश्रेष्ठ है। किन्तु ये रोचक और श्रुतिमधुर शब्द हैं, जो पूर्वजन्म की संचित वासनाओं के अनुसार सर्वत्याग करने में समर्थ नहीं हो सकते, उनके आश्वासन के निमित्त ये शब्द हैं। जैसे मांस खाने की जो अपनी वासना का संवरण नहीं कर सकता उसके लिये कहते हैं- ‘यदि मांस खाना ही है तो यज्ञ करके जो शेष बचे उसे प्रसाद समझकर खाओ। ऐसा करने से हिंसा न होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देश क्या है? ये मित्र कौन है? समय क्या है? व्यय-आगम ये क्या चीज है? मैं स्वयं कौन हूँ और मेरी शक्ति क्या है? इन बातों का बार-बार चिन्तन करना चाहिये। अर्थात जो इस मनुष्य जन्म की महत्ता और काल की महानता समझते हैं, उनके हृदय में ये प्रश्न बार-बार उठते रहते हैं। सु. र. भां. 383/1