श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी17. विश्वरूप का वैराग्य
इन शब्दों में से ही स्पष्ट प्रतीत होताहै कि असल में अहिंसा तो वही है जिसमें किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाया जाय, किन्तु तुम उसका पालन नहीं कर सकते तो अपनी वासना को सर्वतोमुखी स्वतन्त्र मत छोड़ दो, उसे संयम में लाओ। कामवासना को संयम में लाने के ही लिये गृहस्थी होने की आज्ञा दी है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्महीन वासनाएँ तो बन्धन का हेतु हैं ही, किन्तु केवल धर्म भी बन्धन का हेतु है, यदि तुम अपनी वासनाओं को संयम में रखकर धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहोगे तो स्वर्ग का सुख भोगते रहोगे, जन्म-मरण के चक्कर से नहीं छूट सकते। ‘हाँ, यदि मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से जो धर्माचरण करोगे तो धीरे-धीरे इन कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे। पूर्वजन्म की वासनाओं के अनुसार प्राणी स्वयं इन बन्धनों में फँसता है। कर्दम प्रजापति ने दस हजार वर्ष तक भगवान की अनन्य भाव से भूख-प्यास सहकर और प्राणों का निरोध करके तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान उनके सम्मुख प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा तब उन्होंने हाथ जोड़े हुए गद्गद कण्ठ से कैसी सत्य बात कही थी। उन्होंने कहा- ‘भगवान! मुझमें और ग्राम्य-पशु में कोई अन्तर नहीं। मैंने कामना से तुम्हारी उपासना की है, मैं काम-सुख का इच्छुक हूँ, यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं, तो मेरे अनुकूल मुझे भार्या दीजिये। यही मैं वरदान माँगता हूँ।’ दस हजार वर्ष की घोर तपस्या के फलस्वरूप भार्या का वरदान सुनकर भगवान के नेत्रों में जल भर आया और उस विन्दु के गिरने से ही विन्दुसर तीर्थ बन गया। वे अपनी माया की प्रबलता देखकर स्वयं आश्चर्यान्वित हो गये और स्वयं इनके यहाँ देवहूति के गर्भ से कलिपरूप में उत्पन्न हुए। भगवान कपिल ने अपने पिता को तथा माता को तत्त्वोपदेश किया और अन्त में वे संसार से संन्यास लेकर भगवान के अनन्य धाम को प्राप्त हुए। इसलिये कपिल भगवान का मत है- ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद् गृहाद् वा वनाद् वा।’ किसी भी आश्रम में क्यों न हो जब उत्कट वैराग्य हो जाय तब सर्व धर्मों का परित्याग करके एक प्रभु के ही पादपद्मों में मन लगाना चाहिये, यही प्राणिमात्र का परम पुरुषार्थ है। किन्तु उत्कट वैराग्य भी तो पूर्वजन्मों के परम शुभ संस्कारों से प्रापत होता है। निमाई के भाई विश्वरूप की अवस्था अब सोलह वर्ष की हो चली। वे साधारण बालक नहीं थे। मालूम पड़ता है वे सत्य अथवा ब्रह्मलोक के जीव थे, जो अपने अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण करने के निमित्त योगभ्रष्ट शुचि ब्राह्मण के घर में कुछ काल के लिये उत्पन्न हो गये थे। और लोग इस बात को क्या समझें? |