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− | महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम। | + | '''महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम।''' |
− | नि:श्रेयसाय भगवन कल्पते नान्यथा क्वचित।।<ref>हे भगवन ! आप जैसे महानुभावों का जाना यदि कहीं होता भी है तो केवल दीन-हीन गृहस्थियों के कल्याण के ही | + | '''नि:श्रेयसाय भगवन कल्पते नान्यथा क्वचित।।'''<ref>हे भगवन ! आप जैसे महानुभावों का जाना यदि कहीं होता भी है तो केवल दीन-हीन गृहस्थियों के कल्याण के ही निमित्त होता है, इसके सिवा आप जैसे महापुरुष अपने स्वार्थ के निमित्त कदापि कहीं नहीं जाते। श्रीमद्भा. 10/8/4</ref></poem> |
− | दक्षिण मथुरा से चलकर महाप्रभु पाण्डुदेश में ताम्रपर्णीं, नयत्रिपदी, चिवड़तला, तिलकांची, गजेन्द्रमोक्षण, पानागड़ि, चामतापुर, श्रीवैकुण्ठ, मलयपर्वत, धनुस्तीर्थ, कन्याकुमारी आदि तीर्थों में होते हुए और अपने अमोघ दर्शनों से लोगों को कृतार्थ करते हुए मल्लारदेश में | + | दक्षिण [[मथुरा]] से चलकर महाप्रभु पाण्डुदेश में ताम्रपर्णीं, नयत्रिपदी, चिवड़तला, तिलकांची, गजेन्द्रमोक्षण, पानागड़ि, चामतापुर, श्रीवैकुण्ठ, मलयपर्वत, धनुस्तीर्थ, कन्याकुमारी आदि [[तीर्थ|तीर्थों]] में होते हुए और अपने अमोघ दर्शनों से लोगों को कृतार्थ करते हुए मल्लारदेश में पहुँचे। उधर भट्टथारी नाम से साधुवेषधारी लोगों का एक दल होता है। वे लोग एक स्थान पर नहीं रहते हैं। उसका वेष साधुओं का-सा होता है, किंतु उसका व्यवहार अच्छा नहीं होता है। |
− | जब महाप्रभु को यह बात मालूम हुई तो वे उन लोगों के पास गये और उनसे सरलतापूर्वक कहने लगे-‘भाइयो ! आपने यह अच्छा काम नहीं किया है। मेरे साथी को आपने बहकाकर अपने यहाँ रख लिया है, ऐसा करना आप लोगों के लिये उचित नहीं है, आप भी संन्यासी हैं और मैं भी संन्यासी | + | जिस प्रकार भूमरिया या बंजारे अपने डेरा-तम्बू लादकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार वे लोग भी एक स्थान से दूसरे स्थानों में घूमा करते हैं। उनमें से बहुत से तो रात्रि में चोरी भी कर लेते हैं। भूली भटकी स्त्रियों को वे बहकाकर अपने साथ रख लेते हैं। इस प्रकार वे अपने दल को बढ़ाया करते हैं। महाप्रभु रात्रि में उनके समीप ही ठहरे थे। उन लोगों ने महाप्रभु के सेवक कृष्णदास को बहका दिया। उसे सुन्दर स्त्री और धन का लोभ दिया। उन्होंने उसे भाँति-भाँति से समझाया– ‘तू इस विरक्त साधु के पीछे पीछे क्यों मारा मारा फिरता हैं, न भोजन का ठीकाना और न रहने की ही सुविधा। हमारा चेला बन जा। हमारे यहाँ अनेकों सुंदर-सुंदर स्त्रियाँ है, जिसे चाहे रखना, खाने पीने की हमारे यहाँ कमी ही नहीं। रोज हलुआ, मोहनभोग घुटता हैं। बेचारा अनपढ़ सीधा सादा गरीब ब्राह्मण उनकी बातों में आ गया। वह महाप्रभु को छोड़कर धीरे से उठकर उन लोगों के साथ चला गया। |
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+ | जब महाप्रभु को यह बात मालूम हुई तो वे उन लोगों के पास गये और उनसे सरलतापूर्वक कहने लगे- ‘भाइयो ! आपने यह अच्छा काम नहीं किया है। मेरे साथी को आपने बहकाकर अपने यहाँ रख लिया है, ऐसा करना आप लोगों के लिये उचित नहीं है, आप भी संन्यासी हैं और मैं भी संन्यासी हूँ। आपके साथ बहुत-से आदमी हैं, मेरे पास तो यह अकेला ही है, इसलिये मेरे आदमी को कृपा करके आप दे दें नहीं तो इसका परिणाम अच्छा न होगा।’ | ||
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+ | महाप्रभु की ऐसी बात सुनकर वे वेषधारी संन्यासी प्रभु के ऊपर प्रहार करने को उद्यत हो गये, किन्तु प्रभु के प्रभाव से प्रभावान्वित होकर वे भाग गये और महाप्रभु कृष्णदास को उन लोगों से छुड़ाकर आगे के लिये चले। वहाँ से चलकर महाप्रभु पयस्विनी नामक नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ उन्हें प्राचीन लिखी हुई ब्रह्मसंहिता मिल गयी, उस अदभुत ग्रन्थ को लेकर प्रभु श्रृंगेरीमठ में पहुँचे। यह भगवान शंकराचार्य का दक्षिण दिशा का प्रधान मठ है। भगवान शंकराचार्य ने [[वेद]] शास्त्रों की रक्षा और धर्म प्रसार के निमित्त भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये। उत्तर दिशा में [[बदरिकाश्रम]] के समीप जोशीमठ, पूर्व में [[जगन्नाथ मंदिर पुरी|जगन्नाथपुरी]] में गोवर्धनमठ, द्वारिकापुरी में शारदामठ और दक्षिणपुरी में श्रंगेरीमठ। इनमें से जोशी मठ को छोड़कर शेष तीनों मठों के मठाधीश आज तक शंकराचार्य के ही नाम से पुकारे जाते हैं। महाप्रभु का सम्बन्ध भी दशनामी सम्प्रदाय के संन्यासियों से ही था। | ||
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01:21, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी109. दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण
महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम। दक्षिण मथुरा से चलकर महाप्रभु पाण्डुदेश में ताम्रपर्णीं, नयत्रिपदी, चिवड़तला, तिलकांची, गजेन्द्रमोक्षण, पानागड़ि, चामतापुर, श्रीवैकुण्ठ, मलयपर्वत, धनुस्तीर्थ, कन्याकुमारी आदि तीर्थों में होते हुए और अपने अमोघ दर्शनों से लोगों को कृतार्थ करते हुए मल्लारदेश में पहुँचे। उधर भट्टथारी नाम से साधुवेषधारी लोगों का एक दल होता है। वे लोग एक स्थान पर नहीं रहते हैं। उसका वेष साधुओं का-सा होता है, किंतु उसका व्यवहार अच्छा नहीं होता है। जिस प्रकार भूमरिया या बंजारे अपने डेरा-तम्बू लादकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार वे लोग भी एक स्थान से दूसरे स्थानों में घूमा करते हैं। उनमें से बहुत से तो रात्रि में चोरी भी कर लेते हैं। भूली भटकी स्त्रियों को वे बहकाकर अपने साथ रख लेते हैं। इस प्रकार वे अपने दल को बढ़ाया करते हैं। महाप्रभु रात्रि में उनके समीप ही ठहरे थे। उन लोगों ने महाप्रभु के सेवक कृष्णदास को बहका दिया। उसे सुन्दर स्त्री और धन का लोभ दिया। उन्होंने उसे भाँति-भाँति से समझाया– ‘तू इस विरक्त साधु के पीछे पीछे क्यों मारा मारा फिरता हैं, न भोजन का ठीकाना और न रहने की ही सुविधा। हमारा चेला बन जा। हमारे यहाँ अनेकों सुंदर-सुंदर स्त्रियाँ है, जिसे चाहे रखना, खाने पीने की हमारे यहाँ कमी ही नहीं। रोज हलुआ, मोहनभोग घुटता हैं। बेचारा अनपढ़ सीधा सादा गरीब ब्राह्मण उनकी बातों में आ गया। वह महाप्रभु को छोड़कर धीरे से उठकर उन लोगों के साथ चला गया। जब महाप्रभु को यह बात मालूम हुई तो वे उन लोगों के पास गये और उनसे सरलतापूर्वक कहने लगे- ‘भाइयो ! आपने यह अच्छा काम नहीं किया है। मेरे साथी को आपने बहकाकर अपने यहाँ रख लिया है, ऐसा करना आप लोगों के लिये उचित नहीं है, आप भी संन्यासी हैं और मैं भी संन्यासी हूँ। आपके साथ बहुत-से आदमी हैं, मेरे पास तो यह अकेला ही है, इसलिये मेरे आदमी को कृपा करके आप दे दें नहीं तो इसका परिणाम अच्छा न होगा।’ महाप्रभु की ऐसी बात सुनकर वे वेषधारी संन्यासी प्रभु के ऊपर प्रहार करने को उद्यत हो गये, किन्तु प्रभु के प्रभाव से प्रभावान्वित होकर वे भाग गये और महाप्रभु कृष्णदास को उन लोगों से छुड़ाकर आगे के लिये चले। वहाँ से चलकर महाप्रभु पयस्विनी नामक नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ उन्हें प्राचीन लिखी हुई ब्रह्मसंहिता मिल गयी, उस अदभुत ग्रन्थ को लेकर प्रभु श्रृंगेरीमठ में पहुँचे। यह भगवान शंकराचार्य का दक्षिण दिशा का प्रधान मठ है। भगवान शंकराचार्य ने वेद शास्त्रों की रक्षा और धर्म प्रसार के निमित्त भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये। उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम के समीप जोशीमठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धनमठ, द्वारिकापुरी में शारदामठ और दक्षिणपुरी में श्रंगेरीमठ। इनमें से जोशी मठ को छोड़कर शेष तीनों मठों के मठाधीश आज तक शंकराचार्य के ही नाम से पुकारे जाते हैं। महाप्रभु का सम्बन्ध भी दशनामी सम्प्रदाय के संन्यासियों से ही था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे भगवन ! आप जैसे महानुभावों का जाना यदि कहीं होता भी है तो केवल दीन-हीन गृहस्थियों के कल्याण के ही निमित्त होता है, इसके सिवा आप जैसे महापुरुष अपने स्वार्थ के निमित्त कदापि कहीं नहीं जाते। श्रीमद्भा. 10/8/4