श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी108. दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण (2)
कथावाचक ने प्रभु की इस बात को स्वीकार कर लिया और प्रभु ने उसकी नूतन प्रतिलिप करके तो उस कथावाचक को दे दी और वह पुराना पृष्ठ अपने पास रख लिया। उस पृष्ठ को लेकर दयालु गौरांग फिर दक्षिण मथुरा में रामभक्त ब्राह्मण के घर आये और उसे कूर्मपुराण के पुराने पृष्ठ को दिखाते हुए प्रभु ने कहा- ‘लीजिये अब तो आपको सन्तोष होगा। यह तो कूर्मपुराण में ही लिखा है कि रावण सीता की छाया को हरकर ले गया था।’ महाप्रभु की दयालुता को देखकर वह ब्राह्मण प्रेम में व्याकुल होकर रुदन करने लगा। प्रभु के पैरों को पकड़कर उसने रोते-रोते कह- ‘आज आपने मेरे दु:खों को दूर किया। आप मेरे इष्टदेव श्रीरघुनाथ जी ही हैं। मेरे इष्टदेव के सिवा ऐसी असीम कृपा दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। आज आपके अमोघ दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आपने अनुग्रह करके शोकसागर में डूबते हुए मुझ निराश्रय का उद्धार कर दिया। प्रभो ! मैं आपकी स्तुति ही क्या कर सकता हूँ? उस ब्राह्मण की ऐसी स्तुति सुनकर प्रभु ने कहा- ‘विप्रवर ! मैं आपकी भक्ति देखकर बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हुआ हूँ। ऐसा सच्चा भक्त मुझे और कहीं नहीं मिला।’ इस प्रकार उस ब्राह्मण को सन्तुष्ट और कृतार्थ करके महाप्रभु आगे के तीर्थों में जाने का विचार करने लगे। |