श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी109. दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण
सम्भवतया आपने श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी महाराज का नाम तो सुना ही होगा, वे महात्मा उन्हीं के शिष्य हैं, उनका नाम श्रीरंगपुरी है। इतना सुनते ही प्रभु प्रेम में विभोर हो गये। उन्होंने जल्दी से कहा –‘विप्रवर! आप मुझे से श्रीरंगपुरी महाराज के समीप ले चलें।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके वह ब्राह्मण प्रभु को साथ लेकर रंगपुरी महाराज के समीप पहुँचा। प्रभु ने दूर से ही पुरी महाराज को देखकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। पुरी महाराज ने प्रणत हुए प्रभु को उठाकर गले से लगाया और उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगा- ‘आपकी आकृति से ही प्रतीत हो रहा है कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। संन्यासी होकर भी इतनी नम्रता, यह तो महान आश्चर्य की बात है। इतनी सरलता, इतनी भक्ति और ऐसे प्रेम के सात्त्विक विकार मेरे गुरुदेव के कृपापात्र संन्यासियों को छोड़कर और किसी संन्यास में नहीं पाये जाते। आप अपना परिचय मुझे दीजिये।’ प्रभु ने अत्यन्त ही विनीत भाव से कहा- ‘संन्यासियों में भक्तिभाव के प्रवर्तक भगवान माधवेन्द्रपुरी के प्रधान शिष्य श्रीमत ईश्वरपुरी महाराज मेरे मन्त्र-दीक्षा-गुरु हैं। संन्यास के गुरु मेरे श्रीमत केशवभारती महाराज हैं।’ श्रीरंगपुरी महाराज ने पूछा- ‘आपकी पूर्वाश्रम की जन्मभूमि कहाँ है?’ प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘इस शरीर का जन्म गौड़देश में भगवती भागीरथी के तट पर नवद्वीप नामके नगर में हुआ है। प्रसन्नता प्रकट करते हुए पुरी महाराज कहने लगे- ‘ओहो ! तब तो आप अपने बड़े ही निकट सम्बन्धी हैं। श्रीअद्वैताचार्य को तो आप जानते ही होंगे, मैं अपने गुरुदेव के साथ पहले नवद्वीप गया था। वहाँ पर जगन्नाथ मिश्र नामके एक बड़े श्रद्धालु ब्राह्मण हैं, उनकी पत्नी तो साक्षात अन्नपूर्णादेवी ही हैं। मैंने एक दिन उनके घर भिक्षा की थी। उस ब्राह्मणी ने मुझे बड़े ही प्रसन्नता के सहित भिक्षा करायी थी। उनका एक सर्वगुणसम्पन्न पुत्र संन्यासी हो गया था। वह तो बड़ा ही होनहार था। किन्तु दैव की गति बड़ी विचित्र होती है, संन्यास लेने के दो वर्ष बाद, उसने यहीं पर शरीर त्याग दिया। उसका संन्यास का नाम शंकरारण्य था।’ |