श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । अर्थ- जो सर्वज्ञ, पुराण, शासन करने वाला, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यन्त परे, सूर्य की तरह प्रकाश स्वरूप- ऐसे अचिन्त्य स्वरूप का चिन्तन करता है। व्याख्या- ‘कविम्’- सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके संपूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले होने से उन परमात्मा का नाम ‘कवि’ अर्थात सर्वज्ञ है। ‘पुराणम्’- वे परमात्मा सबके आदि होने से ‘पुराण’ कहे जाते हैं। ‘अनुशासितारम्’- हम देखते हैं तो नेत्रों से देखते हैं। नेत्रों के ऊपर मन शासन करता है, मन के ऊपर बुद्धि और बुद्धि के ऊपर ‘अहम्’ शासन करता है तथा ‘अहम्’ के ऊपर भी जो शासन करता है, जो सबका आश्रय, प्रकाशक और प्रेरक है, वह (परमात्मा) ‘अनुशासिता’ है। दूसरा भाव यह है कि जीवों का कर्म करने का जैसा-जैसा स्वभाव बना है, उसके अनुसार ही परमात्मा वेद, शास्त्र, गुरु, संत आदि के द्वारा कर्तव्य-कर्म करने की आज्ञा देते हैं और मनुष्यों के पुराने पाप-पुण्यरूप कर्मों के अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर उन मनुष्यों को शुद्ध, निर्मल बनाते हैं। इस प्रकार मनुष्यों के लिए कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले और मनुष्यों के पाप-पुण्यरूप पुराने कर्मों का (फल देकर) नाश करने वाले होने से परमात्मा ‘अनुशासिता’ हैं। ‘अणोरणीयांसम्’- परमात्मा परमाणु से भी अत्यंत सूक्ष्म हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा मन-बुद्धि तो प्रकृति का कार्य होने से प्रकृति को भी पकड़ नहीं पाते, फिर परमात्मा तो उस प्रकृति से भी अत्यंत परे हैं। अतः वे परमात्मा सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म हैं अर्थात सूक्ष्मता की अंतिम सीमा हैं। ‘सर्वस्य धातारम्’- परमात्मा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने वाले हैं, उनका पोषण करने वाले हैं। उन सभी को परमात्मा से ही सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः वे परमात्मा सबका धारण-पोषण करने वाले कहे जाते हैं। ‘तमसः परस्तात्’- परमात्मा अज्ञान से अत्यंत परे हैं, अज्ञान से सर्वथा रहित हैं। उनमें लेशमात्र भी अज्ञान नहीं है, प्रत्युत वे अज्ञान के भी प्रकाशक हैं। ‘आदित्यवर्णम्’- उन परमात्मा का वर्ण सूर्य के समान है अर्थात वे सूर्य के समान सबको, मन-बुद्धि आदि को प्रकाशित करने वाले हैं। उन्हीं से सबको प्रकाश मिलता है। ‘अचिन्त्यरूपम्’- उन परमात्मा का स्वरूप अचिन्त्य है अर्थात वे मन-बुद्धि आदि के चिन्तन का विषय नहीं है। ‘अनुस्मरेत्’- सर्वज्ञ, अनादि, सबके शासक, परमाणु से भी अत्यंत सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करने वाले, अज्ञान से अत्यंत परे और सबको प्रकाशित करने वाले सगुण-निराकार परमात्मा के चिन्तन के लिए यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ पद आया है। यहाँ ‘अनुस्मरेत्’ कहने का तात्पर्य है कि प्राणिमात्र उन परमात्मा की जानकारी में हैं; उनकी जानकारी के बाहर कुछ है ही नहीं अर्थात उन परमात्मा को सबका स्मरण है, अब उस स्मरण के बाद मनुष्य उन परमात्मा को याद कर ले। यहाँ शंका होती है कि जो अचिन्त्य है, उसका स्मरण कैसे करें? इसका समाधान है कि ‘वह परमात्मतत्त्व चिन्तन में नहीं आता’- ऐसी दृढ़ धारण ही अचिन्त्य परमात्मा का चिन्तन है। संबंध- अब अन्तकाल के चिन्तन के अनुसार गति बताते हैं। |
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