श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । अर्थ- वह भक्तियुक्त मनुष्य अंतसमय में अचल मन से और योगबल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके[1] उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। व्याख्या- ‘प्रयाणकाले मनसाचलेन........ स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्’- यहाँ भक्ति नाम प्रियता का है; क्योंकि उस तत्त्व में प्रियता (आकर्षण) होने से ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात प्रियता स्वयं से होती है, मन-बुद्धि आदि से नहीं। अंतकाल में कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणों से[2] कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मा में भक्तियुक्त मनुष्य का मन स्थिर हो जाना अर्थात सगुण-निराकार-स्वरूप में आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मन का अचल होना है। पहले प्राणायाम के द्वारा प्राणों को रोकने का जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम ‘योगबल’ है। उस योगबल के द्वारा दोनों भ्रुवों के मध्य भाग में स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ी में प्राणों का अच्छी तरह से प्रवेश करके वह[3] दिव्य परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है। ‘तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्’ पदों का तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्व का पीछे के (नवें) श्लोक में वर्णन हुआ है उसी दिव्य परम सगुण-निराकार परमात्मा को वह प्राप्त हो जाता है। आठवें श्लोक में जो बात कही गयी थी, उसी को नवें और दसवें श्लोक में विस्तार से कहकर इन तीन श्लोकों के प्रकरण का उपसंहार किया गया है। इस प्रकरण में सगुण-निराकार परमात्मा की उपासना का वर्णन है। इस उपासना में अभ्यास की आवश्यकता है। प्राणायाम पूर्वक मन को उस परमात्मा में लगाने का नाम अभ्यास है। यह अभ्यास अणिमा, महिमा आदि सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं है, प्रत्युत केवल परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने के लिए है। ऐसा अभ्यास करते हुए प्राणों और मन पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर ले कि जब चाहे प्राणों को रोक ले मन को जब चाहे तभी तथा जहाँ चाहे वहीं लगा ले। जो ऐसा अधिकार प्राप्त कर लेता है, वही अंतकाल में प्राणों को सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट कर सकता है। कारण कि जब अभ्यासकाल में भी मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने में साधक को कठिनता का, असमर्थता का अनुभव होता है, तब अंतकाल जैसे कठिन समय में मन को लगाना साधारण आदमी का काम नहीं है। जिसके पास पहले से योगबल है, वही अंतसमय में मन को परमात्मा में लगा सकता है और प्राणों का सुषुम्णा नाड़ी में प्रवेश करा सकता है। साधक पहले यह निश्चय कर ले कि अज्ञान से अत्यंत परे, सबसे अतीत जो परमात्मातत्त्व है, वह सबका प्रकाशक, सबका आधार और सबको सत्ता-स्फूर्ति देने वाला निर्विकार तत्त्व है। उस तत्त्व में ही प्रियता होनी चाहिए, मन का आकर्षण होना चाहिए, फिर उसमें स्वाभाविक मन लगेगा। संबंध- अब भगवान आगे के श्लोक में निर्गुण-निराकार की प्राप्ति के उपाय का उपक्रम करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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