श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया। व्याख्या- ‘बुद्धया धृतिगृहीतया’- साधन करते-करते प्रायः साधकों को उकताहट होती है, निराशा होती है कि ध्यान लगाते, विचार करते इन दिन हो गए, पर तत्त्व प्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी? कैसे होगी? इस बात को लेकर भगवान ध्यानयोग के साधक को सावधान करते हैं कि उसको ध्यानयोग का अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिए, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिए। जैसे सिद्धि प्राप्त होने पर, सफलता होने पर धैर्य रहता है, विफलता होने पर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिए कि वर्ष के वर्ष बीत जाएं, शरीर चला जाए, तो भी परवाह नहीं, पर तत्त्व तो प्राप्त करना ही है[1] कारण कि इससे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा काम है नहीं। इसलिए इसको समाप्त करके आगे क्या काम करना है? यदि इससे भी बढ़कर कोई काम है तो इसको छोड़ो और उस काम को अभी करो! इस प्रकार बुद्धि को वश में कर लेंं अर्थात बुद्धि में मान, बड़ाई, आराम आदि को लेकर जो संसार का महत्त्व पड़ा है, उस महत्त्व को हटा देंं। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोक में जिन विषयों का त्याग करने के लिए कहा गया है, धैर्ययुक्त बुद्धि से उन विषयों से उपराम हो जाए। ‘शनैः शनैरुपरमेत्’- उपराम होने में जल्दबाजी न करेंं; किंतु धीरे-धीरे उपेक्षा करते-करते विषयों से उदासीन हो जाए और उदासीन होने पर उनसे बिलुकल ही उपराम हो जाए। कामनाओं का त्याग और मन से इंद्रिय-समूह का संयमन करने के बाद भी यहाँ जो उपराम होने की बात बतायी है, उसका तात्पर्य है कि किसी त्याज्य वस्तु का त्याग करने पर भी उस त्याज्य वस्तु के साथ आंशिक द्वेष का भाव रह सकता है। उस द्वेष भाव को हटाने के लिए यहाँ उपराम होने की बात कही गयी है। तात्पर्य है कि संकल्पों के साथ न राग करेंं, न द्वेष करेंं; किंतु उनसे सर्वथा उपराम हो जाए। यहाँ उपराम होने की बात इसलिए कही गयी है कि परमात्मतत्त्व मन के कब्जे में नहीं आता; क्योंकि मन प्रकृति का कार्य से अतीत परमात्मतत्त्व को पकड़ ही कैसे सकता है? अर्थात परमात्मा का चिंतन करते-करते मन परमात्मा को पकड़ ले- यह उसके हाथ की बात नहीं है। जिस परमात्मा की शक्ति से मन अपना कार्य करता है, उसको मन कैसे पकड़ सकता है?- ‘यन्मनसा न मनुते येनुहुर्मनो पतम्’।[2] जैसे, जिस सूर्य के प्रकाश से दीपक, बिजली आदि प्रकाशित होते हैं, वे दीपक आदि सूर्य को कैसे प्रकाशित कर सकते हैं? कारण कि उनमें प्रकाश तो सूर्य से ही आता है। ऐसे ही मन, बुद्धि आदि में जो कुछ शक्ति है, वह उस परमात्मा से ही आती है। अतः वे मन, बुद्धि आदि उस परमत्मा को कैसे पकड़ सकते है? नहीं पकड़ सकते। दूसरी बात, संसार की तरफ चलने से सुख नहीं पाया है, केवल दुःख ही दुःख पाया है। अतः संसार के चिंतन से प्रयोजन नहीं रहा। तो अब क्या करें? उससे उपराम हो जाएँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इहासने शुष्यतु से शरीरं त्वगस्थिमासं प्रलयञ्ज यातु। अप्राप्य बोधं बहुकल्पदुर्लभं नैवासनात् कायमिदं चलिष्यति।। ‘भले ही इस आसन पर मेरा शरीर सूख जाए, चमड़ी, मांस और हड्डियाँ तक नष्ट हो जाएँ; किंतु बहुकल्पदुर्लभ बोध प्राप्त किए बिना इस आसन से वह शरीर हिलेगा नहीं।’
- ↑ केन. 1।5
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