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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय कर्तृत्व में कारण है- भोक्तृत्व। कर्मयोगी भोग की आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भोग की आशा वाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है, क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनों को अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीर को संसार का ही अंग मानता है अतः यदि अंगने अंगी की सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा? यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धन के उद्देश्य से ही व्यापार करता है, तो दूकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयों की ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है। उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज कौन-कौन ग्राहक आये? किस-किस जाति के आये? आदि-आदि। कारण कि ग्राहकों से उसका कोई प्रयोजन नहीं। संसार का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाला मनुष्य संसार में कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय, पर उसकी संसार से एकता नहीं हो सकती; क्योंकि वास्तव में संसार से एकता है ही नहीं। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड़ है, जबकि ‘स्वयं’[1] अचल और चेतन है। परंतु परमात्मा का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाले की परमात्मा से एकता हो ही जाती है[2]; क्योकि ‘स्वयं’ की परमात्मा के साथ स्वतः सिद्ध[3] एकता है। इस प्रकार जब कर्ता ‘कर्तव्य’ बनकर अपने उद्देश्य[4] के साथ एक हो जाता है, तब कर्तृत्वाभिमान प्रश्न ही नहीं रहता। कर्मयोगी जिस उद्देश्य- परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए सब कर्म करता है, उस[5] में कर्तृत्वाभिमान अथवा कर्तृत्व[6] नहीं है। अतः प्रत्येक क्रिया के आदि और अंत में उस उद्देश्य के साथ एकता का अनुभव होने के कारण कर्मयोगी में कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता। प्राणिमात्र के द्वारा किये हुए प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है। कोई भी कर्म निरंतर नहीं रहता। अतः किसी का भी कर्तृत्व निरंतर नहीं रहता, प्रत्युत कर्म का अंत होने के साथ ही कर्तृत्व का भी अंत हो जाता है। परंतु मनुष्य से भूल यह होती है कि जब वह कोई क्रिया करता है, तब तो अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता ही है, पर जब उस क्रिया को नहीं करता, तब भी अपने को वैसा ही कर्ता मानता रहता है। इस प्रकार अपने को निरंतर कर्ता मानते रहने से उसका कर्तृत्वाभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता है। जैसे, कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता[7] होता है, पर जब दूसरे समय में भी वह अपने को वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता। अपने को निरंतर व्याख्यानदाता मानने से ही उसके मन में यह भाव आता है कि ‘श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करें’; और ‘मैं इन साधारण आदमियों के पास कैसे बैठ सकता हूँ,’ मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ आदि। इस प्रकार व्याख्यान रूप कर्म के साथ निरंतर संबंध बना रहता है। इसका कारण है- व्याख्यानरूप कर्म से धन, मान, बड़ाई, आराम आदि कुछ न कुछ पाने का भाव होना। यदि अपने लिये कुछ भी पाने का भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करने तक ही सीमित रहता है और कर्म समाप्ति होते ही कर्तापन अपने उद्देश्य में लीन हो जाता है। जैसे मनुष्य भोजन करते समय ही अपने को उसका भोक्ता अर्थात भोजन करने वाला मानता है, भोजन करने के बाद नहीं, ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रिया को करते समय ही अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं। जैसे, कर्मयोगी व्याख्यानदाता है और लोगों में उसकी बहुत प्रतिष्ठा है। परंतु कभी व्याख्यान सुनने का काम पड़ जाय तो वह कहीं भी बैठकर सुगमतापूर्वक व्याख्यान सुन सकता है। उस समय उसे न आदर की आवश्यकता है, न ऊँचे आसन की; क्योंकि तब वह अपने को श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं। कभी व्याख्यान देने के बाद उसे कोई कमरा साफ करने का काम प्राप्त हो जाय तो वह उस काम को वैसी ही तत्परता से करता है, जैसी तत्परता से वह व्याख्यान देने का कार्य करता है। उसके मन में थोड़ा भी भाव नहीं आता कि ‘इतना बड़ा व्याख्यानदाता होकर मैं यह कमरा सफाई का तुच्छ काम कैसे कर सकता हूँ ! लोग क्या कहेंगे ! मेरी इज्जत धूल में मिल जायगी’ इत्यादि। वह अपने को व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा श्रवण के समय श्रोता और कमरा साफ करते समय कमरा साफ करने वाला मानता है। अतः उसका कर्तृत्वाभिमान निरंतर नहीं रहता। जो वस्तु निरंतर नहीं रहती, अपितु बदलती रहती है, वह वास्तव में नहीं होती और उसका संबंध भी निरंतर नहीं रहता- यह सिद्धांत है। इस सिद्धांत पर दृष्टि जाते ही साधक को वास्तविकता[8] का अनुभव हो जाता है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपना स्वरूप
- ↑ चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो
- ↑ तात्त्विक
- ↑ परमात्मतत्त्व
- ↑ परमात्मतत्त्व
- ↑ कर्तापन
- ↑ व्याख्यान दाता
- ↑ कर्तृत्वाभिमान से रहित स्वरूप
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