श्रीमद्भगवद्गीता -रामसुखदास अध्याय 3 पृ. 144

Prev.png
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय

कर्तृत्व में कारण है- भोक्तृत्व। कर्मयोगी भोग की आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भोग की आशा वाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है, क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनों को अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीर को संसार का ही अंग मानता है अतः यदि अंगने अंगी की सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा?

यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धन के उद्देश्य से ही व्यापार करता है, तो दूकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयों की ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है। उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज कौन-कौन ग्राहक आये? किस-किस जाति के आये? आदि-आदि। कारण कि ग्राहकों से उसका कोई प्रयोजन नहीं। संसार का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाला मनुष्य संसार में कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय, पर उसकी संसार से एकता नहीं हो सकती; क्योंकि वास्तव में संसार से एकता है ही नहीं। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड़ है, जबकि ‘स्वयं’[1] अचल और चेतन है। परंतु परमात्मा का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाले की परमात्मा से एकता हो ही जाती है[2]; क्योकि ‘स्वयं’ की परमात्मा के साथ स्वतः सिद्ध[3] एकता है। इस प्रकार जब कर्ता ‘कर्तव्य’ बनकर अपने उद्देश्य[4] के साथ एक हो जाता है, तब कर्तृत्वाभिमान प्रश्न ही नहीं रहता।

कर्मयोगी जिस उद्देश्य- परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए सब कर्म करता है, उस[5] में कर्तृत्वाभिमान अथवा कर्तृत्व[6] नहीं है। अतः प्रत्येक क्रिया के आदि और अंत में उस उद्देश्य के साथ एकता का अनुभव होने के कारण कर्मयोगी में कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता।

प्राणिमात्र के द्वारा किये हुए प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है। कोई भी कर्म निरंतर नहीं रहता। अतः किसी का भी कर्तृत्व निरंतर नहीं रहता, प्रत्युत कर्म का अंत होने के साथ ही कर्तृत्व का भी अंत हो जाता है। परंतु मनुष्य से भूल यह होती है कि जब वह कोई क्रिया करता है, तब तो अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता ही है, पर जब उस क्रिया को नहीं करता, तब भी अपने को वैसा ही कर्ता मानता रहता है। इस प्रकार अपने को निरंतर कर्ता मानते रहने से उसका कर्तृत्वाभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता है। जैसे, कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता[7] होता है, पर जब दूसरे समय में भी वह अपने को वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता। अपने को निरंतर व्याख्यानदाता मानने से ही उसके मन में यह भाव आता है कि ‘श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करें’; और ‘मैं इन साधारण आदमियों के पास कैसे बैठ सकता हूँ,’ मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ आदि। इस प्रकार व्याख्यान रूप कर्म के साथ निरंतर संबंध बना रहता है। इसका कारण है- व्याख्यानरूप कर्म से धन, मान, बड़ाई, आराम आदि कुछ न कुछ पाने का भाव होना। यदि अपने लिये कुछ भी पाने का भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करने तक ही सीमित रहता है और कर्म समाप्ति होते ही कर्तापन अपने उद्देश्य में लीन हो जाता है।

जैसे मनुष्य भोजन करते समय ही अपने को उसका भोक्ता अर्थात भोजन करने वाला मानता है, भोजन करने के बाद नहीं, ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रिया को करते समय ही अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता है, अन्य समय नहीं। जैसे, कर्मयोगी व्याख्यानदाता है और लोगों में उसकी बहुत प्रतिष्ठा है। परंतु कभी व्याख्यान सुनने का काम पड़ जाय तो वह कहीं भी बैठकर सुगमतापूर्वक व्याख्यान सुन सकता है। उस समय उसे न आदर की आवश्यकता है, न ऊँचे आसन की; क्योंकि तब वह अपने को श्रोता मानता है, व्याख्यानदाता नहीं। कभी व्याख्यान देने के बाद उसे कोई कमरा साफ करने का काम प्राप्त हो जाय तो वह उस काम को वैसी ही तत्परता से करता है, जैसी तत्परता से वह व्याख्यान देने का कार्य करता है। उसके मन में थोड़ा भी भाव नहीं आता कि ‘इतना बड़ा व्याख्यानदाता होकर मैं यह कमरा सफाई का तुच्छ काम कैसे कर सकता हूँ ! लोग क्या कहेंगे ! मेरी इज्जत धूल में मिल जायगी’ इत्यादि। वह अपने को व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता, कथा श्रवण के समय श्रोता और कमरा साफ करते समय कमरा साफ करने वाला मानता है। अतः उसका कर्तृत्वाभिमान निरंतर नहीं रहता। जो वस्तु निरंतर नहीं रहती, अपितु बदलती रहती है, वह वास्तव में नहीं होती और उसका संबंध भी निरंतर नहीं रहता- यह सिद्धांत है। इस सिद्धांत पर दृष्टि जाते ही साधक को वास्तविकता[8] का अनुभव हो जाता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपना स्वरूप
  2. चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो
  3. तात्त्विक
  4. परमात्मतत्त्व
  5. परमात्मतत्त्व
  6. कर्तापन
  7. व्याख्यान दाता
  8. कर्तृत्वाभिमान से रहित स्वरूप

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
श्लोक संख्या विषय पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय
1-11 पाण्डव और कौरव सेना के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन -
12-19 दोनों पक्षों की सेनाओं के शंख वादन का वर्णन 15
20-27 अर्जुन के द्वारा सेना-निरीक्षण 27
28-47 अर्जुन के द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुन की अवस्था का वर्णन 39
पहले अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 50
द्वितीय अध्याय
1-10 अर्जुन की कायरता के विषय में संजय द्वारा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन 1
11-30 सांख्ययोग का वर्णन 17
31-38 क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की आवश्यकता का प्रतिपादन 52
39-53 कर्मयोग का वर्णन 61
54-72 स्थित प्रज्ञ के लक्षणों आदि का वर्णन 81
दूसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 104
तृतीय अध्याय
1-8 सांख्ययोग और कर्मयोग की दृष्टि से कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 105
9-19 यक्ष और सृष्टिचक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 121
20-29 लोक संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 147
30-35 राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा 165
36-43 पापों के कारणभूत 'काम' को मारने की प्रेरणा 189
तीसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 210
चतुर्थ अध्याय
1-15 कर्मयोग की परम्परा और भगवान के जन्मों तथा कर्मों की दिव्यता का वर्णन 211
16-32 कर्मों के तत्त्व का और तदनुसार यज्ञों का वर्णन 256
33-42 ज्ञानयोग और कर्मयोग की प्रशंसा तथा प्रेरणा 288
चौथे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 306
पंचम अध्याय
1-6 सांख्यायोग तथा कर्मयोग की एकता का प्रतिपादन और कर्मयोग की प्रंशसा 307
7-12 सांख्ययोग और कर्मयोग के साधन का प्रकार 322
13-26 फल सहित सांख्ययोग का विषय 338
27-29 ध्यान और भक्ति का वर्णन 365
पाँचवे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 370
षष्ठ अध्याय
1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण 371
5-9 आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोग के लक्षण 382
10-15 आसन की विधि और फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन 397
16-23 नियमों का फल सहित स्वरूप के ध्यान का वर्णन 407
24-28 फलसहित निर्गुण-निराकार के ध्यान का वर्णन 422
29-32 सगुण और निर्गुण के ध्यान-योगियों का अनुभव 432
33-36 मन के विग्रह का विषय 441
37-47 योगभ्रष्ट की गति का वर्णन और भक्ति योगी की महिमा 450
छठे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 473
सप्तम अध्याय
1-7 भगवान के द्वारा समग्ररूप के वर्णन की प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकतियों के संयोग से प्राणियों की उतपत्ति बताकर अपने को सबका मूल कारण बताना 474
8-12 कारण रूप से भगवान की विभूतियों का वर्णन 496
13-19 भगवान के शरण होने वालों का और शरण न होने वालों का वर्णन 508
20-23 अन्य देवताओं की उपासनाओं का फलसहित वर्णन 538
24-30 भगवान के प्रभाव को जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की प्रशंसा तथा भगवान के समरूप का वर्णन 544
सातवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 566
अष्टम अध्याय
1-7 अर्जुन के सात प्रश्न और भगवान के द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब के समय में अपना स्मरण करने की आज्ञा देना 567
8-16 सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की उपासना फलसहित वर्णन 587
17-22 ब्रह्मलोक तक की अवधिका और भगवान की महत्ता तथा भक्ति का वर्णन 601
23-28 शुक्ल और कृष्ण गति का वर्णन उसको जानने वाले योगी की महिमा 609
आठवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 619
नवम अध्याय
1-6 प्रभाव सहित विज्ञान का वर्णन 621
7-10 महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन 638
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों का कथन तथा दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले भक्तों के भजन का वर्णन 645
16-19 कार्य-कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों का वर्णन 654
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फलसहित वर्णन 658
पदार्थों और क्रियाओं को भगवदर्पण करने का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों का और भक्ति का वर्णन 669
नवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 704
दशम अध्याय
1-7 भगवान की विभूति और योग का कथन तथा उनको जानने की महिमा 705
8-11 फलसहित भगवद्भभक्ति और भगवत्कृपा का प्रभाव 719
12-18 अर्जुन के द्वारा भगवान की स्तुति और योग तथा विभूतियों को कहने के लिये प्रार्थना 728
19-42 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योग का वर्णन 735
दसवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 769
एकादश अध्याय
1-8 विराट्‍रूप दिखाने के लिये अर्जुन की प्रार्थन और भगवान के द्वारा अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान करना 771
9-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विराट्‍ रूप का वर्णन 783
15-31 अर्जुन के द्वारा विराट् रूप को देखना और उसकी स्तुति करना 789
32-35 भगवान के द्वारा अपने अत्युग्र विराट रूप का परिचय और युद्ध की आज्ञा 809
36-46 अर्जुन के द्वारा विराटरूप भगवान की स्तुति-प्रार्थना 817
47-50 भगवान के द्वारा विराटरूप के दर्शन की दुर्लभता बताना और अर्जुन को आश्वासन देना 831
51-55 भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महत्ता और उसके दर्शन का उपाय बताना 839
ग्यारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 848
द्वादश अध्याय
1-12 सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का निर्णय और भगत्प्राप्ति के चार साधनों का वर्णन 850
13-20 सिद्ध भक्तों के उन्तालीस लक्षणों का वर्णन 892
बारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 918
त्रयोदश अध्याय
1-18 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचना 920
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विवेचन 967
तेरहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 992
चतुर्दश अध्याय
1-4 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति 993
5-18 सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों का विवेचन 999
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षण 1028
चौदहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1044
पंचदश अध्याय
1-6 संसार का वृक्ष तथा उसका छेदन करके भगवान के शरण होने का और भगवद्धाम का वर्णन 1045
7-11 जीवात्मा का स्वरूप तथा उसे जानने वाले और न जानने वाले का वर्णन 1071
12-15 भगवान के प्रभाव का वर्णन 1096
16-20 क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तथा अध्याय का उपसंहार 1110
पंद्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1122
षोडश अध्याय
1-5 फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 1123
6-8 सत्कर्मों से विमुख हुए आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों की मान्याताओं का कथन 1164
9-16 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुराचारों और मनोरथों का फलसहित वर्णन 1173
17-20 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन 1187
21-24 आसुरी सम्पत्ति के मूलभूत दोष काम, क्रोध और लोभ से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने की प्रेरणा 1197
सोलहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1204
सप्तदश अध्याय
1-6 तीन प्रकार की श्रद्धा का और आसुर निश्चय वाले मनुष्यों का वर्णन 1205
7-10 सात्त्विक, राजस और तामस आहारी की रुचि का वर्णन 1218
11-22 यज्ञ, तप और दान के तीन-तीन भेदों का वर्णन 1230
23-28 'ॐ तत्सत्' के प्रयोग की व्याख्या और असत्- कर्म का वर्णन 1254
सत्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1263
अष्टादश अध्याय
1-12 सन्यास के विषय में मतान्तर और कर्मयोग का वर्णन 1264
13-40 सांख्ययोग का वर्णन 1310
41-48 कर्मयोग का भक्तिसहित वर्णन 1364
49-55 सांख्ययोग का वर्णन 1408
56-66 भगवद्भभक्ति का वर्णन 1418
67-68 श्रीमद्भगवदद्गीता की महिमा 1490
अठारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1523
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति 1524
आरती अंतिम पृष्ठ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः