श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय कर्मयोगी सब क्रियाएँ उसी भाव से करता है, जिस भाव से नाटक में एक स्वाँगधारी पात्र करता है। जैसे नाटक में हरिश्चंद्र का स्वाँग नाटक[1] के लिये ही होता है, और नाटक समाप्त होते ही हरिश्चंद्र रूप स्वाँग का स्वाँग के साथ ही त्याग हो जाता है, ऐसे ही कर्मयोगी का कर्तापन भी स्वाँग के समान केवल क्रिया करने तक ही सीमित रहता है। जैसे नाटक में हरिश्चंद्र बना हुआ व्यक्ति हरिश्चंद्र की सब क्रियाएँ करते हुए भी वास्तव में अपने को उन क्रियाओं का कर्ता[2] नहीं मानता, ऐसे ही कर्मयोगी शास्त्रविहित संपूर्ण कर्मों को करते हुए भी वास्तव में अपने को उन क्रियाओं का कर्ता नहीं मानता। कर्मयोगी शरीरादि सब पदार्थों को स्वाँग की तरह अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें[3] संसार की ही सेवा में लगाता है। अतः किसी भी अवस्था में कर्मयोगी में किञ्चिंमात्र भी कर्तृत्वाभिमान नहीं रह सकता। कर्मयोगी जैसे कर्तृत्व को अपने में निरंतर नहीं मानता, ऐसे ही माता-पिता, स्त्री- पुत्र, भाई- भौजाई आदि के साथ अपना संबंध भी निरंतर नहीं मानता। केवल सेवा करते समय ही उनके साथ अपना संबंध[4] मानता है। जैसे, यदि कोई पति है तो पत्नी के लिये पति है अर्थात पत्नी कर्कशा हो, कुरुपा हो, कलह करने वाली हो, पर उसे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया तो अपनी योग्यता, सामर्थ्य के अनुसार उसका भरण-पोषण करना पति का कर्तव्य है। पति के नाते उसके सुधार की बात कह देनी है, चाहे वह माने या न माने। हर समय अपने को पति नहीं मानना है; क्योंकि इस जन्म से पहले वह पत्नी थी, इसका क्या पता? और मरने के बाद भी वह पत्नी रहेगी, इसका भी क्या निश्चय? तथा वर्तमान में भी वह किसी की माँ है, किसी की पुत्री है, किसी की बहन है, किसी की भाभी है, किसी की ननद है, आदि-आदि। वह सदा पत्नी ही तो है नहीं। ऐसा मानने से उससे सुख लेने की इच्छा स्वतः मिटती है और ‘केवल भरण-पोषण[5] करने के लिये ही पत्नी’, यह मान्यता दृढ़ होती है। इस प्रकार कर्मयोगी को संसार में पिता, पुत्र, पति, भाई आदि के रूप में जो स्वाँग मिला है, उसे वह ठीक-ठीक निभाता है। दूसरा अपने कर्तव्य का पालन करता है या नहीं, उसकी ओर वह नहीं देखता। अपने में कर्तृत्वाभिमान होने से ही दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि जाती है और दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि जाते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से गिर जाता है; क्योंकि दूसरे का कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है। जिस प्रकार कर्मयोगी संसार के प्राणियों के साथ अपना संबंध निरंतर नहीं मानता, उसी प्रकार वर्ण, आश्रम, जाति, संप्रदाय, घटना, परिस्थिति आदि के साथ ही अपना संबंध निरंतर नहीं मानता। जो वस्तु निरंतर नहीं है, उसका अभाव स्वतः है। अतः कर्मयोगी का कर्तृत्वाभिमान स्वतः मिट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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