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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय ‘असक्तो ह्याचरन्कर्म’- मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसार से अपना संबंध जोड़ता है, संसार नहीं। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह संसार के हित के लिये ही सब कर्म करे और बदले में उनका कोई फल न चाहे। इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिये, इस भाव से संसार के लिये कर्म करने से संसार से स्वतः संबंध-विच्छेद हो जाता है। कर्मयोगी संसार की सेवा करने से वर्तमान की वस्तुओं से और कुछ न चाहने से भविष्य की वस्तुओं से संबंध विच्छेद करता है। मेले में स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझकर दिनभर यात्रियों की सेवा करते हैं और बदले में किसी से कुछ नहीं चाहते; अतः रात्रि में सोते समय उन्हें किसी की याद नहीं आती। कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसी से कुछ चाहा नहीं। इसी प्रकार जो सेवाभाव से दूसरों के लिये ही सब कर्म करता है और किसी से मान, बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता, उसे संसार की याद नहीं आती। वह सुगमतापूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। कर्म तो सभी किया करते हैं, पर कर्मयोग तभी होता है, जब आसक्तिरहित होकर दूसरों के लिये कर्म किये जाते हैं। आसक्ति शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म करने से ही मिट सकती है- ‘धर्म तें बिरति’।[1] शास्त्र निषिद्ध कर्म करने से आसक्ति कभी नहीं मिट सकती। ‘परमाप्नोति पुरुषः’- जैसे तेरहवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में भगवान ने ‘परम्’ पद से सांख्योगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कही, ऐसे ही यहाँ ‘परम्’ पद से कर्मयोगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधक[2] किसी भी मार्ग- कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग पर क्यों न चले, उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं।[3] प्राप्तव्य तत्त्व वही हो सकता है, जिसकी प्राप्ति विकल्प, संदेह और निराशा न हो तथा जो सदा हो, सब देश में हो, सब काल में हो, सभी के लिये हो, सबका अपना हो और जिस तत्त्व से कोई कभी किसी अवस्था में किञ्चिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात जो सब को सदा अभिन्न रूप से स्वतः प्राप्त हो। शंका- कर्म करते हए कर्मयोगी का कर्तृत्वाभिमान कैसे मिट सकता है? क्योंकि कर्तृत्वाभिमान मिटे बिना परमतत्त्व का अनुभव नहीं हो सकता। समाधान- साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है। अपने लिये कर्म करने से मनुष्य में कर्तृत्वाभिमान रहता है कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता। वह ऐसा मानता है कि संसार से शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि, पदार्थ, रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है, वह सब संसार की ही है अपनी नहीं। जब कभी अवसर मिलता है, तभी वह सामग्री, समय, सामर्थ्य आदि को संसार की सेवा में लगा देता है, उनको संसार की सेवा में लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसार की वस्तु ही संसार की सेवा में लगा रहा हूँ अर्थात सामग्री, समय, सामर्थ्य आदि उन्हीं के हैं, जिनकी सेवा हो रही है। ऐसा मानने से कतृत्वाभिमान नहीं रहता। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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