श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय
तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्टे हुए हैं। दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेष रूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य प्राप्ति का ही था। वह राज्य प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये- ऐसा उसका भाव था। इसलिए विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात युद्ध की इच्छा वाला था। पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परंतु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी[1] अर्थात केवल माँ के आज्ञा पालन रूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा वाले हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माता कुन्ती सहिष्णु थी। कष्ट से बचकर सुख, आराम राज्य आदि चाहना- यह बात उसमें नहीं थी। वही एक ऐसी विलक्षण माता थी, जिसने भगवान से विपत्ति का ही वरदान माँगा था। परन्तु उसके मन में दो बातों को लेकर बड़ा दु:ख। पहली बात, राज्य के लिये कौरव-पाण्डव आपस में लड़्ते, चाहे जो करते, पर मेरी प्यारी पुत्रवधू द्रौपदी को इन दुर्योधनादि दुष्टों ने सभा नग्न करना चाहा, अपमानित करना चाहा- ऐसी घृणित चेष्टा करना मनुष्यता नहीं है। ऐसी घृणित चेष्टा करना मनुष्यता नहीं है। यह बात माता कुन्ती को बहुत बुरी लगी।
- ↑ अपने पिता के बड़े भाई होने से
- ↑ यद्यपि ‘कौरव’ शब्द के अंतर्गत धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि और पाण्डु के पुत्र युधिष्ठिर आदि सभी आ जाते हैं, तथापि इस श्लोक में धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर आदि के लिए ‘पाण्डव’ शब्द का प्रयोग किया है। अतः व्याख्या में ‘कौरव’ शब्द दुर्योधन आदि के लिए ही दिया है।
- ↑ धृतराष्ट्र के मन में द्वैधीभाव था कि दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि मेरे पुत्र नहीं है, प्रत्युत पाण्डु के पुत्र हैं। इस भाव के कारण दुर्योधन का भीम को विष खिलाकर जल में फेक देना, लाक्षागृह में पाण्डवों को जलाने का प्रयत्न करना, युधिष्ठिर के साथ छलपूर्वक जुआ खेलना, पाण्डवों का नाश करने के लिए सेना लेकर वन में जाना आदि कार्यों के करने में दुर्योधन को धृतराष्ट्र ने कभी मना नहीं किया। कारण कि उनके भीतर यही भाव था कि अगर किसी तरह पाण्डवों का नाश हो जाए, तो मेरे बेटों का राज्य सुरक्षित रहेगा।
- ↑ यहाँ आए ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ का अलग-अलग वर्णन करने की दृष्टि से ही आगे संजय के वचनों में ‘दुर्योधन’ (1।2) और ‘पाण्डवः’ (1।14) शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
- ↑ दूसरे
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