श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
अब तक मनुष्य ने अनेक बार जन्म लिया है और अनेक बार कई वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों, अवस्थाओं, घटनाओं आदि का मनुष्य को संयोग हुआ है; परंतु उन सभी का उससे वियोग हो गया और वह स्वयं वहीं रहा। कारण कि वियोग का संयोग अवश्यम्भावी नहीं है, पर संयोग का वियोग अवश्यम्भावी है। इससे सिद्ध हुआ कि संसार से वियोग ही वियोग है, संयोग है ही नहीं। अनादिकाल से वस्तुओं आदि का निरंतर वियोग ही होता चला आ रहा है, इसलिए वियोग ही सच्चा है। इस प्रकार संसार से सर्वथा वियोग का अनुभव हो जाना ही ‘योग’ है- ‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं यगसंज्ञितम्’।[1] यह होगा नित्यसिद्ध है। स्वरूप अथवा परमात्मा के साथ हमारा नित्योग है[2] और शरीर संसार के साथ नित्यवियोग है। संसार के संयोग की सद्भावना होने से ही वास्तव में नित्ययोग अनुभव में नहीं आता। सद्भावना मिटते ही नित्ययोग का अनुभव हो जाता है, जिसका कभी वियोग हुआ ही नहीं। संसार से संयोग मानना ही ‘विस्मृति’ है और संसार से नित्यवियोग का अनुभव होना अर्थात वास्तव में संसार के साथ मेरा संयोग था नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं- ऐसा अनुभव होना ही ‘स्मृति’ है। संबंध- पहले अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘अथ’ पद से श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में गीता का आरंभ हुआ था, अब आगे के श्लोक में ‘इति’ पद से उसकी समाप्ति करते हुए संजय इस संवाद की महिमा गाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 6:23
- ↑ कर्मयोग तथा ज्ञानयोग में स्वरूप के साथ नित्ययोग है, और भक्तियोग में भगवान के साथ नित्ययोग है।
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