श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
संजय उवाच इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन: । अर्थ- संजय बोले- इस प्रकार मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानंदन अर्जुन का यह रोमांचित करने वाला अद्भुत संवाद सुना व्याख्या- ‘इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन’- संजय कहते हैं कि इस तरह मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह संवाद सुना, जो कि अत्यंत अद्भुत, विलक्षण है और इसकी यादमात्र हर्ष के मारे रोमांचित करने वाली है। यहाँ ‘इति’ पद का तात्पर्य है कि पहले अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘अथ व्यवस्थितान्द्वष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः’ पदों से संजय श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप गीता का आरंभ करते हैं और यहाँ ‘इति’ पद से उस संवाद की समाप्ति करते हैं। अर्जुन के लिए ‘महात्मनः’ विशेषण देने का तात्पर्य है कि अर्जुन कितने महान विलक्षण पुरुष हैं, जिनकी आज्ञा का पालन स्वयं भगवान करते हैं! अर्जुन कहते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दो[1], तो भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा कर देते हैं।[2] गीता में अर्जुन जहाँ-जहाँ प्रश्न करते हैं, वहाँ-वहाँ भगवान बड़े प्यार से और बड़ी विलक्षण रीति से प्रायः विस्तारपूर्वक उत्तर देते हैं। इस प्रकार महात्मा अर्जुन के और भगवान वासुदेव के संवाद को मैंने सुना है। ‘संवादमिमश्रोषमद्भुतं रोमहर्षणम्’- इस संवाद में अद्भुत और रोमहर्षणपना क्या है? शास्त्रों में प्रायः ऐसी बात आती है कि संसार की निवृत्ति करने से ही मनुष्य पारमार्थिक मार्ग पर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्यों में भी प्रायः ऐसी ही धारणा बैठी हुई है कि घर, कुटुम्ब आदि को छोड़कर साधु-संन्यासी होने से ही कल्याण होता है। परंतु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति, अवस्था, घटना, देश, काल आदि क्यों न हो, उसी के सदुपयोग से मनुष्य का कल्याण हो सकता है। इतना ही नहीं, वह परिस्थिति बढ़िया से बढ़िया हो या घटिया से घटिया, सौम्य से सौम्य हो या घोर से घोर विहित युद्ध- जैसी प्रवृत्ति हो, जिसमें दिनभर मनुष्यों का गला काटना पड़ता है, उसमें भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है, मुक्ति हो सकती है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 1।21
- ↑ गीता 1:24
- ↑ जब हर एक परिस्थिति से संबंध-विच्छेद होने से ही कल्याण होता है, तब तो प्राकृत परिस्थिति का घटिया या बढ़िया होना कोई महत्त्व नहीं रखता। हाँ, उससे अलग होने के उपाय (कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि) अलग-अलग हो सकते हैं। परंतु इनमें राग मिटाना ही खास उपाय है; क्योंकि राग मिटने से द्वेष मिट जाता है और राग-द्वेष के मिटने से संसार से संबंध-विच्छेद हो जाता है। संसार से संबंध-विच्छेद होना ही मुक्ति है। वास्तव में जो बद्ध होता है, वह मुक्त नहीं होता और जो मुक्त होता है, वह मुक्त क्या होगा? क्योंकि वह तो मुक्त ही है। तो फिर मुक्त होना क्या है? वास्तव में मुक्त होते हुए भी जिस बंधन को स्वीकार किया है, उस बंधन से छूटने का नाम ही मुक्त होना है।
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