श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
असत् को असत् जानकर भी यह उसमें आसक्त क्यों होता है? कारण कि असत् के संबंध से प्रतीत होने वाले तात्कालिक सुख की तरफ तो यह दृष्टि रखता है, पर उसका परिणाम क्या होगा, उस तरफ अपनी दृष्टि रखता ही नहीं।[4] इसलिए असत् के संबंध से ही भूल पैदा हुई है। इसका पता कैसे लगता है? जब यह अपने अनुभव में आने वाले असत् की आसक्ति का त्याग करके परमात्मा के सम्मुख हो जाता है, तब यह भूल मिट करके स्मृति जाग्रत हो जाती है, इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा से विमुख होकर जाने हुए असत् में आसक्ति होने से ही यह भूल हुई है। असत् को महत्त्व देने से होने वाली भूल स्वाभाविक नहीं है। इसको मनुष्य ने खुद पैदा किया है। जो चीज स्वाभाविक होती है, उसमें परिवर्तन भले ही हो, पर उसका अत्यंत अभाव नहीं होता। परंतु भूल का अत्यंत अभाव होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस भूल को मनुष्य ने खुद उत्पन्न किया है; क्योंकि जो वस्तु मिटने वाली होती है, वह उत्पन्न होने वाली ही होती है। इसलिए इस भूल को मिटाने का दायित्व भी मनुष्य पर ही है, जिसको वह सुगमतापूर्वक मिट सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्यक 1।4।3
- ↑ सत् असत् का ज्ञान
- ↑ संसार के भोग और संग्रह के सुख में
- ↑ जो परिणाम की तरफ दृष्टि रखते हैं, साधक होते हैं और जो परिणाम की तरफ दृष्टि नहीं रखते, वे संसारी होते हैं।
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