श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
शरणगत भक्त को तो ऐसी चिन्ता भी कभी नहीं करनी चाहिए कि अभी भगवान के दर्शन नहीं हुए, भगवान के चरणों में प्रेम नहीं हुआ, अभी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं, आदि। इस प्रकार की चिन्ताएं करना मानो बँदरी का बच्चा बनना है। बँदरी का बच्चा स्वयं ही बँदरी को पकड़े रहता है। बँदरी कूदे-फाँदे, किधर भी जाए, बच्चा स्वयं बँदरी से चिपका रहता है। भक्त को तो अपनी सब चिन्ताएँ भगवान पर ही छोड़ देनी चाहिए अर्थात भगवान दर्शन दें या न दें, प्रेम दें या न दें, वृत्तियों को ठीक करें या न करें, हमें शुद्ध बनायें या न बनायें- यह सब भगवान की मरजी पर छोड़ देना चाहिए। उसे तो बिल्ली का बच्चा बनना चाहिए। बिल्ली का बच्चा अपनी माँ पर निर्भर रहता है। बिल्ली चाहे जहाँ रखे, चाहे जहाँ ले जाए। बिल्ली अपनी मरजी से बच्चे को उठाकर ले जाती है तो वह पैर समेट लेता है। ऐसी ही शरणागत भक्त संसार की तरफ से अपने हाथ पैर समेटकर[2] केवल भगवान का चिन्तन, नाम-जप आदि करते हुए भगवान की तरफ ही देखता रहता है। भगवान का जो विधान है, उसमें परम प्रसन्न रहता है, अपने मन की कुछ भी नहीं लगता। जैसे, कुम्हार पहले मिट्टी को सिर पर उठाकर लाता है तो कुम्हार की मरजी, फिर उस मिट्टी को गीला करके उसे रौंदता है तो कुम्हार की मरजी, फिर चक्के पर चढ़ाकर घुमाता है तो कुम्हार की मरजी। मिट्टी कभी कुछ नहीं कहती कि तुम घड़ा बनाओ, सकोरा बनाओ, मटकी बनाओ। कुम्हार चाहे जो बनाए, उसकी मरजी है। ऐसे ही शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मरजी, मन की बात नहीं रखता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।। (मानस 7।47।3)
- ↑ भक्त जो कुछ काम करता है, उसको भगवान का ही समझकर, भगवान की ही शक्ति मानकर, भगवान के ही लिए करता है, अपने लिए किञ्चिन्मात्र भी नहीं करता- यही उसका हाथ पैर समेटना है।
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