श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यह नियम है कि जो चीज अपनी होती है, वह सदा ही अपने को प्यारी लगती है। भगवान संपूर्ण जीवों को अपना प्रिय मानते हैं- ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’[1] और इस जीव को भी प्रभु स्वतः ही प्रिय लगते हैं। हाँ, यह बात दूसरी है कि यह जीव परिवर्तनशील संसार और शरीर को भूल से अपना मानकर अपने प्यारे प्रभु से विमुख हो जाता है। इसके विमुख होने पर भी भगवान ने अपनी तरफ से किसी भी जीव का त्याग नहीं किया है और न कभी त्याग कर ही सकते हैं। कारण कि जीव सदा से साक्षात भगवान का ही अंश है। इसलिए संपूर्ण जीवों के साथ भगवान की आत्मीयता अक्षुण्ण, अखंडित रूप से स्वाभाविक ही बनी हुई है। इसी से वे मात्र जीवों पर कृपा करने के लिए अर्थात भक्तों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना- इन तीन बातों को लिए समय समय पर अवतार लेते हैं।[2] इन तीनों बातों में केवल भगवान की आत्मीयता ही टपक रही है, नहीं तो भक्तों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना से भगवान का क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? अर्थात कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भगवान तो ये तीनों ही काम केवल प्राणिमात्र के कल्याण के लिए ही करते हैं। इससे भी प्राणिमात्र के साथ भगवान की स्वाभाविक आत्मीयता, कृपालुता, प्रियता, हितैषिता, सुहृत्ता और निरपेक्ष उदारता ही सिद्ध होती है, और यहाँ भी इसी दृष्टि से अर्जुन से कहते हैं- ‘मद्भक्तो भव, मन्मना भव, मद्याजी भव, मां नमस्कुरु।’ इन चारों बातों में भगवान का तात्पर्य केवल जीव को अपने सम्मुख कराने में ही है, जिसमें संपूर्ण जीव असत् पदार्थों से विमुख हो जाएँ; क्योंकि दुःख, संताप, बार-बार जन्मना-मरना, मात्र विपत्ति आदि में मुख्य हेतु भगवान से विमुख होना ही है। भगवान जो कुछ भी विधान करते हैं, वह संसार मात्र के संपूर्ण जीवों के कल्याण के लिए ही करते हैं- बस, भगवान की इस कृपा की तरफ जीव की दृष्टि हो जाए, तो फिर उसके लिए क्या करना बाकी रहा? जीवों के हित के लिए भगवान के हृदय में एक तड़पन है, इसीलिए भगवान ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ वाली अत्यंत गोपनीय बात कह देते हैं। कारण कि भगवान जीवमात्र को अपना मित्र मानते हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’[3] और उन्हें यह स्वतंत्रता देते हैं कि वे कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं, उनमें से किसी भी साधन के द्वारा सुगमतापूर्वक मेरी प्राप्ति कर सकते हैं और दुःख, संताप आदि को सदा के लिए समूल नष्ट कर सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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