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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
शरणागत भक्त को अपने लिए कभी किञ्चिन्मात्र भी कुछ करना शेष नहीं रहता; क्योंकि उसने संपूर्ण ममता वाली वस्तुओं सहित अपने-आपको भगवान के समर्पित कर दिया, जो वास्तव में प्रभु का ही था। अब करने, कराने आदि का सब काम भगवान का ही रह गया। ऐसी अवस्था में वह कठिन से कठिन और भयंकर से भयंकर घटना, परिस्थिति में भी अपने पर प्रभु की महान कृपा देखकर सदा प्रसन्न रहता है, मस्त रहता है। जैसे, गरुड़ जी के पूछने पर काकभुशुण्डिजी ने अपने पूर्वजन्म के ब्राह्मण शरीर की कथा सुनायी, जिसमें लोमश ऋषि ने शाप देकर उन्हें (ब्राह्मण को) पक्षियों में नीच चाण्डाल पक्षी (कौआ) बना दिया; परंतु काकभुशुण्डि जी के मन में न कुछ भय हुआ और न कुछ दीनता ही आयी। उन्होंने उसमें भगवान का शुद्ध विधान ही समझा। केवल समझा ही नहीं, प्रत्युत मन ही मन बोल उठे- ‘उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन’।[1] ऐसा भयंकर शाप मिलने पर भी जब काकभुशुण्डिजी की प्रसन्नता में कोई कमी नहीं आयी, तब लोमश ऋषि ने उनको भगवान का प्यारा भक्त समझकर अपने पास बुलाया और बालक राम जी का ध्यान बताया। फिर भगवान की कथा सुनायी और अत्यंत प्रसन्न होकर काकभुशुण्डि जी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया- ‘मेरी कृपा से तुम्हारे हृदय में अबाध, अखंड रामभक्ति रहेगी। तुम राम जी के प्यारे हो जाओगे। तुम संपूर्ण गुणों की खान बन जाओगे। जिस रूप की इच्छा करोगे, वह रूप धारण कर लोगे। जिस स्थान पर तुम रहोगे, उसमें एक योजनापर्यनन्त माया का कण्टक किञ्चिन्मात्र भी नहीं आएगा’ आदि-आदि। इस प्रकार बहुत से आशीर्वाद देते ही आकाशवाणी हुई कि ‘हे ऋषे! तुमने जो कुछ कहा, वह सब सच्चा होगा, यह मन, वाणी कर्म से मेरा भक्त है।’ इन्हीं बातों को लेकर भगवान के विधान में सदा प्रसन्न रहने वाले काकभुशुण्डि जी ने कहा है- भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महा रिषि साप। यहाँ ‘भजन प्रताप’ शब्दों का अर्थ है- भगवान के विधान में हर समय प्रसन्न रहना। विपरीत से विपरीत अवस्था में भी प्रेमी भक्त की प्रसन्नता अधिक से अधिक बढ़ती रहती है; क्योंकि प्रेम का स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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