श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
जैसे धीवर (मछुआ) मछलियों को पकड़ने के लिए नदी में जाल डालता है तो जाल के भीतर आने वाली सब मछलियाँ पकड़ी जाती हैं; परंतु जो मछली जाल डालने वाले मछुए के चरणों के पास आ जाती है, वह नहीं पकड़ी जाती। ऐसे ही भगवान की माया (संसार) में ममता करके जीव फँस जाते हैं और जन्मते-मरते रहते हैं; परंतु जो जीव मायापति भगवान के चरणों की शरण हो जाते हैं, वे माया को तर जाते हैं- ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’।[1] इस दृष्टान्त का एक ही अंश ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि धीवर का तो मछलियों को जाल में फँसाने का भाव होता है; परंतु भगवान का जीवों को माया में फँसाने का किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं होता। भगवान का भाव तो जीवों को मायाजाल से मुक्त करके अपने शरण लेने का होता है, तभी तो वे कहते हैं- ‘मामेकं शरणं व्रज।’ जीव संयोगजन्य सुख की लोलुपता से खुद ही माया में फँस जाते हैं। जैसे चलती हुई चक्की के भीतर आने वाले सभी दाने पिस जाते हैं;[2] परंतु जिसके आधार पर चक्की चलती है, उस कील के आस-पास रहने वाले दाने ज्यों के त्यों साबूत रह जाते हैं। ऐसे ही जन्म-मरण रूप संसार की चलती हुई चक्की में पड़े हुए सब के सब जीव पिस जाते हैं अर्थात दुःख पाते हैं; परंतु जिसके आधार पर संसार-चक्र चलता है, उन भगवान के चरणों का सहारा लेने वाला जीव पिसने से बच जाता है- ‘कोई हरिजन ऊबरे, कील मकड़ी पास।’ परंतु यह दृष्टान्त भी पूरा नहीं घटता; क्योंकि दाने तो स्वाभाविक ही कील के पास रह जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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