श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्राद्गुह्रातरं मया । अर्थ- इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया। अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर। व्याख्या- 'इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्राद्गुह्रातरं मया'- पूर्वश्लोक में सर्वव्यापक अंतर्यामी परमात्मा की जो शरणागति बतायी गयी है, उसी का लक्ष्य यहाँ ‘इति’ पद से कराया गया है। भगवान कहते हैं कि यह गुह्य से भी गुह्यतर शरणागतिरूप ज्ञान मैंने तेरे लिए कह दिया है। कर्मयोग ‘गुह्य’ है और अंतर्यामी निराकार परमात्मा की शरणगति ‘गुह्यतर’ है।[1] ‘विमृश्यैतदशेषेण’- गुह्य से गुह्यतर शरणागति रूप ज्ञान बताकर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मैंने पहले जो भक्ति की बातें कही हैं, उन्हें ‘एतत्’ पद से लेना चाहिए। गीता में जहाँ-जहाँ भक्ति की बातें आयी हैं, उन्हें ‘अशेषेण’ पद से लेना चाहिए।[2] ‘विमृश्यैतदशेषण’ कहने में भगवान की अत्यधिक कृपालुता की एक गूढ़ाभिसन्धि है कि कहीं अर्जुन मेरे से विमुख न हो जाए, इसलिए यदि यह मेरी कही हुई बातों की तरफ विशेषता से खयाल करेगा तो असली बात अवश्य ही इसकी समझ में आ जाएगी और फिर यह मेरे से विमुख नहीं होगा। ‘यथेच्छसि तथा कुरु’- पहले कही बातों पर पूरा-पूरा विचार करके फिर तेरी जैसी मरजी आए, वैसा कर। तू जैसा करना चाहता है, वैसा कर- ऐसा कहने में भी भगवान की आत्मीयता, कृपालुता और हितैषिता ही प्रत्यक्ष दीख रही है। पहले ‘वक्ष्याम्यशेषतः’[3], ‘इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे’[4]; ‘वक्ष्यामि हितकाम्यया’[5] आदि श्लोकों में भगवान अर्जुन के हित की बात कहते आए हैं, पर इन वाक्यों में भगवान की अर्जुन पर ‘सामान्य कृपा’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योगयुक्त बुद्धि वाले कर्मफल का त्याग करके अनामय पद को प्राप्त हो जाते हैं (गीता 2:51); जो प्राप्ति ज्ञानयोग से होती है, वह प्राप्ति कर्मयोग से हो जाती है (गीता 4:38); योगयुक्त मुनि बहुत जल्दी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है (गीता 5:6); कर्मफल का त्याग करने पर सदा रहने वाली शांति प्राप्त होती है (गीता 5:12) आदि श्लोक में कर्मयोग परमात्मप्राप्ति का स्वतंत्र साधन सिद्ध होता है। ऐसे कर्मयोग को ‘गुह्य’ कहते हैं। जडता से संबंध-विच्छेद करके निराकार परमात्मा के शरण हो जाना- यह कर्मयोग से भी अधिक महत्त्व का है, इसलिए इसे ‘गुह्य’ कहते हैं। सूर्य को मैंने ही उपदेश दिया था, वही मैं तेरे को कह रहा हूँ (गीता 4:3); संपूर्ण जगत मेरे से ही व्याप्त है (गीता 9:4); क्षर से अतीत और अक्षर से और अक्षर से उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ मैं ही हूँ (गीता 15:18) आदि बातों में भगवान ने अपनी भगवत्ता प्रकट की है, इसलिए ये बातें ‘गुह्यतम’ है। तू केवल मेरी ही शरण में आ जा, फिर तेरे को किञ्चिन्मात्र भी करना नहीं है, मैं तेरे को संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक-चिन्ता मत कर (गीता 18:66)- इस प्रकार अपनी शरणागति की बात कहना ‘सर्वगुह्यतम’ है। जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि सब साधनों का वर्णन होता है, उस योगशास्त्र को ‘परमगुह्य’ कहा गया है (गीता 18:68, 75)।
- ↑ गीता में भक्ति की बातें इन श्लोकों में आयी है- संपूर्ण योगियों में भक्तियोगी श्रेष्ठ है (गीता 6:47); मेरी शरण लेने वाले माया को तर जाते हैं (गीता 7:14); सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मेरी (भगवान की) शरण लेने वाले महात्मा अत्यंत दुर्लभ है (7:19); अनन्य भक्ति से मैं सुलभ हूँ (8:14); अनन्य भक्ति से परम पुरुष की प्राप्ति होती है (8:22); दैवी-संपत्ति के आश्रित महात्मालोग अनन्यमन से मेरा भजन करते हैं (9:13); दृढ़ निश्चय वाले भक्त निरंतर कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुए भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं (9:14); अनन्यभक्त का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (9:22); भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित पत्र, पुष्प, फल आदि को मैं खाता हूँ (9:26); तू जो करता है, हवन करता है, दान देता है और तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर (9:27); सब कर्म मेरे अर्पण कर दे तो तू शुभाशुभ फलरूप बंधन से मुक्त हो जाएगा (9:28); मेरे में मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजन करने वाला हो और मेरे को नमस्कार कर (9:34); सब प्रकार से मेरे में लगे हुए भक्तों का अज्ञान मैं दूर कर देता हूँ, जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं (10।9-11); अनन्यभक्ति से ही मैं देखा और जाना जा सकता हूँ तथा मेरे में प्रवेश किया जा सकता है (11:54); अनन्यभक्ति वाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है (11:55); मेरा भजन करने वाला भक्त अति उत्तम योगी है (12:2); जो सब कर्मों को मेरे अर्पण करके मेरे परायण हो गये हैं, उनका मैं बहुत जल्दी उद्धार करता हूँ (12।6-7); तू मेरे में ही मन और बुद्धि को अर्पित कर दे तो मेरी प्राप्ति हो जाएगी (12:8); अव्यभिचारी भक्तियोग से मनुष्य गुणातीत हो जाता है (14:26); सर्वभाव से मेरा भजन करने वाला भक्त सर्ववित है (15।19), आदि-आदि।
- ↑ 7:2
- ↑ 9:1
- ↑ 10:1
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