श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य’- गीताभर में देखा जाए तो समता की बड़ी भारी महिमा है। मनुष्य में एक समता आ गयी तो वह ज्ञानी, ध्यानी, योगी, भक्त आदि सब कुछ बन गया। परंतु यदि उसमें समता नहीं आयी तो अच्छे-अच्छे लक्षण आने पर भी भगवान उसको पूर्णता नहीं मानते। वह समता मनुष्य में स्वाभाविक रहती है। केवल आने-जाने-वाली परिस्थितियों के साथ मिलकर वह सुखी-दुःखी हो जाता है। इसलिए उनमें मनुष्य सावधान रहे कि आने-जाने वाली परिस्थिति के साथ मैं नहीं हूँ। सुख आया, अनुकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और सुख चला गया, अनुकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। ऐसे ही दुःख आया, प्रतिकूल परिस्थिति आयी तो भी मैं हूँ और दुःख चला गया, प्रतिकूल परिस्थिति चली गयी तो भी मैं हूँ। अतः सुख-दुःख में, अनुकूल-प्रतिकूलता में, हानि-लाभ में मैं सदैव ज्यों का त्यों रहता हूँ। परिस्थितियों के बदलने पर भी मैं नहीं बदलता, सदा वही रहता हँ। इस तरह अपने आप में स्थित रहे। अपने-आप में स्थित रहने से सुख-दुःख आदि में समता हो जाएगी। यह समता ही भगवान की आराधना है- ‘समत्वमाराधनमच्युतस्य’।[1] इसीलिए यहाँ भगवान बुद्धियोग अर्थात समता का आश्रय लेने के लिए कहते हैं। ‘मच्चित्तः सततं भव’- जो अपने को सर्वथा भगवान के समर्पित कर देता है, उसका चित्त भी सर्वथा भगवान के चरणों में समर्पित हो जाता है। फिर उस पर भगवान का जो स्वतः स्वाभाविक अधिकार है, वह प्रकट हो जाता है और उसके चित्त में स्वयं भगवान आकर विराजमान हो जाते हैं। यही ‘मच्चित्तः’ होना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विष्णुपुराण 1।17।90
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