श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: । अर्थ- चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अपर्ण करके, मेरे परायण होकर तथा समता का आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्त वाला हो जा। व्याख्या- इस श्लोक में भगवान ने चार बातें बतायी हैं-
‘चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य’- चित्त से कर्मों को अर्पित करने का तात्पर्य है कि मनुष्य चित्त से यह दृढ़ता से मान ले कि मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर आदि और संसार के व्यक्ति, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि सब भगवान के ही हैं। भगवान ही इन सबके मालिक हैं। इनमें से कोई भी चीज किसी की व्यक्तिगत नहीं है। केवल इन वस्तुओं का सदुपयोग करने के लिए ही भगवान ने व्यक्तिगत अधिकार दिया है। इस दिए हुए अधिकार को भी भगवान के अर्पण कर देना है। शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि से जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएं होती हैं, वे सब भगवान की मरजी से ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकार के कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओं में जो अपनापन है, उसे भी भगवान के अर्पण कर देना है; क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खता से माना हुआ है, वास्तव में है नहीं। इसलिए उनमें अपनेपन का भाव बिलकुल उठा देना चाहिए और उन सब पर भगवान की मुहर लगा देनी चाहिए। ‘मत्परः’- भगवान ही मेरे परम आश्रय हैं, उनके सिवाय मेरा कुछ नहीं है, मेरे को करना भी कुछ नहीं है, पाना भी कुछ नहीं है, किसी से लेना भी कुछ नहीं है अर्थात देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि से मेरा किञ्चिन्मात्र कोई प्रयोजन नहीं है- ऐसा अनन्यभाव हो जाना ही भगवान के परायण होना है। एक बात खास ध्यान देने की है- रुपए पैसे, कुटुम्ब, शरीर आदि को मनुष्य अपना मानते हैं और मन में यह समझते हैं कि हम इनके मालिक बन गए, हमारे इन पर आधिपत्य है; परंतु वास्तव में यह बात बिलकुल झूठी है, कोरा वहम है और बड़ा भारी धोखा है। जो किसी चीज को अपनी मान लेता है, वह उस चीज का गुलाम बन जाता है और वह चीज उसका मालिक बन जाता है। फिर उस चीज के बिना वह रह नहीं सकता। अतः जिन चीजों को मनुष्य अपनी मान लेता है, वे सब उस पर चढ़ जाती हैं और वह तुच्छ हो जाता है।
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