श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
चित्त से सब कर्म भगवान के अर्पण करने से संसार से नित्य-वियोग हो जाता है[2] और भगवान के परायण होने से नित्ययोग (प्रेम) हो जाता है। नित्ययोग में योग, नित्ययोग में वियोग, वियोग में नित्ययोग और वियोग में वियोग- ये चार अवस्थाएँ चित्त की वृत्तियों को लेकर होती है। नित्ययोग (प्रेम) हो जाता है। नित्ययोग में योग, नित्ययोग में वियोग, वियोग में नित्ययोग और वियोग में वियोग- ये चार अवस्थाएं चित्त की वृत्तियों को लेकर होती हैं। इन चारों अवस्थाओं को इस प्रकार समझना चाहिए- जैसे, श्रीराधा और श्रीकृष्ण का परस्पर मिलन होता है, तो यह ‘नित्ययोग में योग’ है। मिलन होने पर भी श्रीजी में ऐसा भाव आ जाता है कि प्रियतम कहीं चले गए हैं और वे एकदम कह उठतीं हैं कि ‘प्यारे! तुम कहाँ चले गए!’ तो यह ‘नित्ययोग में वियोग’ है। श्यामसुंदर सामने नहीं है, पर मन से उन्हीं का गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मन से प्रत्यक्ष मिलते हुए दीख रहे हैं, तो यह ‘वियोग में नित्ययोग’ है। श्यामसुंदर थोड़े समय के लिए सामने नहीं आए, पर मन में ऐसा भाव है कि बहुत समय बीत गया, श्यामसुंदर मिले नहीं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? श्यामसुंदर कैसे मिलें? तो यह ‘वियोग में वियोग’ है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काठिन्यं विषये कुर्याद् द्रवत्वं भगवत्पदे। उपायैः शास्त्रनिर्दिष्टैरनुक्षणमतो बुधः ।। (भक्तिरसायन 1।32)
- ↑ वास्तव में संसार के साथ कभी संयोग हो नहीं सकता। उसका तो नित्य ही वियोग रहता है। जैसे, मन में किसी वस्तु का चिन्तन होता है, तो वह उस वस्तु का माना हुआ संयोग है, जिससे उस वस्तु के न मिलने का दुःख होता है। जब वस्तु (बाहर से) मिल जाती है, तब उस वस्तु का भीतर से वियोग हो जाता है, जिससे सुख होता है। ऐसे ही किसी कारण से बाहर से वस्तु चली जाए, नष्ट हो जाए, तो मन से उस वस्तु का संयोग होने पर दुःख होता है और विवेक-विचार के द्वारा ‘यह वस्तु हमारी थी ही नहीं, हमारी हो सकती ही नहीं’ इस प्रकार वस्तु को मन से निकाल देने पर सुख होता है। तात्पर्य यह है कि भीतर से संयोग माना तो बाहर से वियोग है और बाहर से संयोग माना तो भीतर से वियोग है। अतः वास्तव में संसार के साथ नित्य वियोग ही रहता है। मनुष्य केवल भूल से संसार के साथ संयोग मान लेता है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज