श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’- सात्त्विक अर्थात दैवी संपत्ति वाले मनुष्य देवों का पूजन करते हैं। यहाँ ‘देवान्’ शब्द से विष्णु, शंकर, गणेश, शक्ति और सूर्य- ये पाँच ईश्वरकोटि के देवता लेने चाहिए; क्योंकि दैवी-संपत्ति में ‘देव’ शब्द ईश्वर का वाचक है और उसकी संपत्ति अर्थात दैवी-संपत्ति मुक्ति देने वाली है- ‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’।[1] वह दैवी-संपत्ति जिनमें प्रकट होती है, उन (दैवी-संपत्ति वाले) साधकों की स्वाभाविक श्रद्धा की पहचान बताने के लिए यहाँ ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ पद आए हैं। ईश्वरकोटि के देवताओं में भी साधकों की श्रद्धा अलग-अलग होती है। किसी की श्रद्धा भगवान विष्णु- (राम, कृष्ण, आदि) में होती है, किसी की भगवान शंकर में होती है, किसी की भगवान गणेश में होती है, किसी की भगवती शक्ति में होती है और किसी की भगवान सूर्य में होती है। ईश्वर के जिस रूप में उनकी स्वाभाविक श्रद्धा होती है, उसी का वे विशेषता से यजन-पूजन करते हैं। बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार- इन तैंतीस प्रकार के शास्त्रोक्त देवताओं का निष्कामभाव से पूजन करना भी ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ के अंतर्गत मानना चाहिए। ‘यक्षरक्षांसि राजसाः’- राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का पूजन करते हैं। यक्ष-राक्षस भी देवयोनि में हैं। यक्षों में धन के संग्रह की मुख्यता होती है और राक्षसों में दूसरों का नाश करने की मुख्यता होती है। अपनी कामनापूर्ति के लिए और दूसरों का विनाश करने के लिए राजस मनुष्यों में यक्षों और राक्षसों का पूजन करने की प्रवृत्ति होती है। ‘प्रेतान्भूतगणांश्चन्ये यजन्ते तासमा जनाः’- तामस मनुष्य प्रेतों तथा भूतों का पूजन करते हैं। जो मर गए हैं, उन्हें प्रेत कहते हैं और जो भूतनियों में चले गए हैं, उन्हें ‘भूत’ कहते हैं। यहाँ ‘प्रेत’ शब्द के अंतर्गत जो अपने पितर हैं, उनको नहीं लेना चाहिए; क्योंकि जो अपना कर्तव्य समझकर निष्कामभाव से अपने-अपने पितरों का पूजन करते हैं, वे तामस नहीं कहलाएंगे, प्रत्युत सात्त्विक ही कहलाएंगे। अपने-अपने पितरों के पूजन का भगवान ने निषेध नहीं किया है- ‘पितृन्यान्ति पितृव्रताः’।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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