श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।2।।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! तू संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मेरे को ही समझ; और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।
व्याख्या- ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’- संपूर्ण क्षेत्रों- (शरीरों-) में ‘मैं हूँ’- ऐसा जो अहंभाव है, उसमें ‘मैं’ तो क्षेत्र है (जिसको पूर्वश्लोक में ‘एतत्’ कहा है) और ‘हूँ’ मैं- पन का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है (जिसको पूर्वश्लोक में ‘वेत्ति’ पद से जानने वाला कहा है)। ‘मैं’ का संबंध होने से ही ‘हूँ’ है। अगर ‘मैं’ का संबंध न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। कारण कि ‘है’ ही ‘मैं’ के साथ संबंध होने से ‘हूँ’ कहा जाता है। अतः वास्तव में क्षेत्रज्ञ- (‘हूँ’-) की परमात्मा- (‘है’-) के साथ एकता है। इसी बात को भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि संपूर्ण क्षेत्रों में मेरे को ही क्षेत्रज्ञ समझो।
मनुष्य किसी विषय को जानता है, तो वह जानने में आने वाला विषय ‘ज्ञेय’ कहलाता है। यह ज्ञेय को वह किसी करण के द्वारा ही जानता है। करण दो तरह का होता है- बहिःकरण और अंतःकरण। मनुष्य विषयों को बहिःकरण- (श्रोत, नेत्र आदि-) से जानता है और बहिःकरण को अंतःकरण- (मन, बुद्धि आदि-) से जानता है। उस अंतःकरण की चार वृत्तियाँ हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन चारों में भी अहंकार सबसे सूक्ष्म है, जो कि एकदेशीय है। यह अहंकार भी जिससे देखा जाता है, जाना जाता है, वह जानने वाला प्रकाश स्वरूप क्षेत्रज्ञ है। उस अहंभाव के भी ज्ञाता क्षेत्रज्ञ को साक्षात् मेरा स्वरूप समझो।
यहाँ ‘विद्धि’ पद कहने का तात्पर्य है कि हे अर्जुन! जैसे तू अपने को शरीर में मानता है और शरीर को अपना मानता है, ऐसे ही तू अपने को मेरे में जान (मान) और मेरे को अपना मान। कारण कि तुमने शरीर के साथ जो एकता मान रखी है, उसको छोड़ने के लिए मेरे साथ एकता माननी बहुत आवश्यक है।
जैसे यहाँ भगवान् ने ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ पदों से क्षेत्रज्ञ की अपने साथ एकता बतायी है, ऐसे ही गीता में अन्य जगह भी एकता बतायी है; जैसे- दूसरे अध्याय के सत्रहवें श्लोक में भगवान् ने शरीरी- (क्षेत्रज्ञ-) के लिए कहा कि ‘जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो’- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्’ और नवें अध्याय के चौथे श्लोक में अपने लिए कहा कि ‘मेरे से यह संपूर्ण संसार व्याप्त है’- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।’ यहाँ तो भगवान् ने क्षेत्रज्ञ- (अंश-) की अपने (अंशी के) साथ एकता बतायी है और आगे इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में शरीर-संसार- (कार्य-) की प्रकृति- (कारण-) के साथ एकता बतायेंगे। तात्पर्य है कि शरीर को प्रकृति का अंश है, इसलिए तुम इससे सर्वथा विमुख हो जाओ; और तुम मेरे अंश हो, इसलिए तुम मेरे सम्मुख हो जाओ।
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